ग़ालिब, फ़ैज़, मीर, जाॅन बड़े अफ़सर है तेरे इश्क़!
तेरे दफ़्तर का बस इक छोटा सा लिपिक हूं मैं तो-
हर्फ़ हर्फ़ ग़ालिब किया और सफ़्हे सफ़्हे मीर किया
बाक़ी वक़्त में हमने यारों, दाग़, ज़ौक़ और बशीर किया-
तुमने हुस्न को जागीर समझा है
अपने लिखे को मीर समझा है
तुम ख़ामख़ाह पड़ी हो इस झंझट में
जब हमने तुमको अपनी हीर समझा है-
धरती की जन्नत में आतंकी हवाओं को चीर आया हूँ
रहम बक्श खुदा कश्मीर पर, मैं शहीद मीर आया हूँ-
वो हिन्दू मुस्लिम लिख कर वाह ले गए
हम पीर कबीर मीर लिख तन्हा रह गए
संवेदना शायद मज़हब में सिमट गयी है-
साँसों की सौगात है जीवन खोना मत,
कुछ भी हों हालात यहां पे रोना मत.!
जीवन है एक जंग इसे स्वीकार करो,
हिम्मत से मुश्किल का सागर पार करो!
घबराहट में अपना आपा खोना मत..!
कुछ भी हों...
प्यार की बातें लोगों को समझाना तुम,
शायर का ये काम है करते जाना तुम,
बीज दिलों में नफ़रत का तुम बोना मत!
कुछ भी हों..
अपने जैसे बन पाओ तो बात बने,
मीर या ग़ालिब जैसी एक शुरुआत बने,
स्वतंत्र सुनो तुम किसी के जैसे होना मत!
कुछ भी हो...
सिद्धार्थ मिश्र-
गर कोई हमसे पूछे क्या मुश्किल है
मुश्किल को आसान बनाना मुश्किल है
ज़िन्दगी शायद आसानी से गुज़रेगी
तू जो मिला है बिल्कुल मुझसा मुश्किल है
बहना सिफ़त है दरिया की पर दरिया से
पूछो तो ये बहना कितना मुश्किल है
ला-फ़ानी होने का जज़्बा एक तरफ़
अस्ल में तो ये ज़िन्दगी जीना मुश्किल है
अश्क़ के बदले आँख में लोहू लाने को
'मीर' के जैसा पागल होना मुश्किल है-
हमको दुनियावालों ने समझाया है,
हमने गजलों में ये सच फरमाया है.!
हसरत की महफ़िल में सब दीवाने हैं,
सबकी अपनी चाहत अपनी माया है.!
खुश रहना है तो खुद में जीना सीखो,
ख़ुद को खोकर पाया तो क्या पाया है?
कदम कदम पे मालिक के जलवे देखो,
कहीं खुशी है कहीं पे गम की छाया है.!
मीर की नज्मों में जो शोखी उसकी है,
ग़ालिब के हर शेर का वो सरमाया है..!
रहमत के बादल उस पर ही बरसेंगे.,
सांस की लय पर गीत प्रेम का गाया है.!
स्वतंत्र हुई जब मीरा तो मोहन की थी,
साथ है रब तो दुनियादारी जाया है..!
सिद्धार्थ मिश्र
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کرم خدایا ایسا برسا، پتا-پتا بوٹا-بوٹا بھی ترسا،
اور ہنر سخن آئی سب کو مگر کہاں خدا سخن سا۔
करम-ए-ख़ुदाया ऐसा बरसा, पत्ता-पत्ता ,बूटा-बूटा भी तरसा
और हुनर-ए-सुख़न आई सबको मगर कहाँ ख़ुदा-ए-सुख़न सा।-