मन से बंधकर,दिल से होते हुए अग्नि की प्रदक्षिणा पूरी करते हुए कुछ वचनों से उलझकर सांस तोड़ देते है शयनकक्ष की दीवारों में घुटकर,
कुछ रिश्तों की नियति ऐसी ही होती है।।-
मुझे जानने की कोशिश न करना,
खुद को भूल जाओगे मेरी गुमनाम शख़्सि... read more
कुछ आग बड़ी ख़ामोशी से दुनिया तबाह करते हैं ,
तसव्वुर से जाते नही जो ज़ख्म वो बड़ा क़माल करते हैं-
औरत हूँ साहिब ,सच है माक़ूल भी
गूँगी नही मुँह में ज़बान रखती हूँ ।।
इश्क़ के ज़ोर से बंधी हूँ पर
हाँ ज़िन्दा हूँ और ज़ज़्बात रखती हूँ ।।
सोच से "कलाम" भी हूँ मैं
भूलना मत ख़्यालात "आज़ाद" रखती हूँ ।।
घर से निकलती भी हूँ , गैरों से मिलती भी हूँ
हाँ मैं मर्यादा वाली ईमान रखती हूँ ।।
धीर गंभीर हूँ ,ज़हर बुझी तीर हूँ
छूना मत मैं भरी तरकश वाली कमान रखती हूँ ।।
दोहरे मापदंड समझती हूँ ,सीरत समझ
मुस्कुराकर जलाने की फ़ितरत क़माल रखती हूँ ।।
कमी मुझमें भी है ,भूल न जाऊं
इसलिए मैं आईना साथ रखती हूँ-
फिर से कोई राधा होती, फिर से कोई कृष्ण होता
फिर से धैर्य समीक्षा होती फिर से कोई मृत भाव संकीर्ण होती
फिर से कोई योग होता फिर से कोई जोग होता
फिर से निधिवन संजोग होता फिर से कोई कनुप्रिया अवतीर्ण होती
फिर से प्रेम दूत पवन बनता फिर से वो बात होता
फिर से कोई अनिमित्त प्रतीक्षा होती फिर से विश्वास वो प्रगाढ़ होता
फिर से युग होता वो फिर से भाव संचार होता
फिर से अनुपमा नयी होती फिर से प्रकृति का नूतन वो श्रृंगार होता
फिर से कोई राधा होती फिर से कोई कृष्ण होता
फिर न कोई व्यापार होता , फिर न मिथ्या सौगन्ध का आदान प्रदान होता-
बहुत लिखा मैंने शब्दों को
चलो आज मैं तुम्हे लिखती हूँ
देखूं ज़रा तुम समझते हो इसे ?
ये भीड़ वाह वाह करती है की नही?
वो बारिश लिखूंगी आज मैं भीग कर
शाम धुंधलके चाभी गए जब भूलकर
इक दायरे में बन्धी कविता खड़ी थी इस पार
एक उलझन में प्रेरणा उलझी थी गेट उस पार
वो नींद लिखूंगी आज मैं रातों को सुलाकर
छुप कर खड़ी थी धड़कन कुछ हड़बड़ाकर
इक आँख भर समेट लिया तुझे उस पल मैंने
कि सोया था जब तू अभिनय का पर्दा सरकाकर
वो पहली झलक लिखूंगी मैं आइनों को हटाकर
जब अनजान सी व्यस्त थी मैं इतवार की उन
भीगी लटों से छलकती चंचल बूंदों को समेटने में
वन साइड मिरर से जब तूने समेटा था गर्दन झुकाकर
इक कहानी लिखूंगी मैं वक्त की चाशनी में पिघलाकर
धोखा नही था सच नही था पर हाँ चाँद का अक़्स था
शब्दों में बांधकर अब तक लिखा सच ज़रा सा दंग था
कुछ ख़्वाब जी लिया था जब मैंने तस्वीर सीने से लगाकर-
मैं मृत्यु हूँ तू साक्षात् है मैं तुम में तू मुझमे व्याप्त
मैं पंचतत्व तू राख़ है मैं बेकल तो तू शांत है मैं इति तू आगाज़ है मैं स्वस्तिक तू शिव है
मैं संगीत तू साज़ है मैं हूँ रात तुम भोर हो
मैं सुबह तू साँझ है मैं हूँ बेबस तुम शोर हो
मैं धूमिल तू ताज है मैं विपक्ष तुम मध्यस्थ हो
मैं वर्षा तू तेज ताप है मैं आहुति तुम स्वाहा हो
बस तुम-
मन की दीवारे नम हैं मानव,
कील ठोको समय की और प्रेम की तस्वीरें टांग दो-
पूर्णता को भी जो सकल प्राप्त हो प्रियतम , वो
सम्पूर्ण आधार हो तुम
ह्रदय में स्पंदन , धमनी में बहते प्रेमस्वरूप
अविरल रसधार हो तुम
जीवन पर्यन्त जो रगों में हो प्रवाहित , वो
जीविषा रक्त संचार हो तुम
जिसकी ख़ातिर बेकल ये चितवन , वर्षा कणों
की शीतल बौछार हो तुम
क्या हो तुम ? शब्द परिसीमा नही , व्यथित ह्रदय
की शांत पुकार हो तुम
मीरा की भक्ति , राधा की बेकल विरह ,कृष्ण का
सौन्दर्यगर्भित श्रृंगार हो तुम
पूर्णता को भी जो सकल प्राप्त हो प्रियतम, वो
सम्पूर्ण आधार हो तुम
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