पाँव हैं शल कि दश्त को जाया न जाएगा
हम बे-घरों से घर भी बनाया न जाएगा
इक बात है जो मुझ से बताई न जाएगी
इक ज़ख़्म है जो तुझ को दिखाया न जाएगा
इक आँख है जो तुझ से मिलाई न जाएगी
इक दिल है अब जो तुझ से लगाया न जाएगा
जो जा चुके अब उनको न दी जाएगी सदा
जो खो गए हैं उन को भुलाया न जाएगा
हम इश्क़ के सफ़र में ये सामान-ए-आगही
खो देंगे यूँ की फिर कभी पाया न जाएगा
बुलबुल बहार-ए-रफ़्ता का करती रहेगी सोग
उस बाग़ में अब उस से तो जाया न जाएगा
सीने से कोई शय अब उतारी न जाएगी
पलकों से कोई बोझ उठाया न जाएगा
'अर्हत' अगरचे गलियों में फिरता है मिस्ल-ए-क़ैस
हमसे ये संग उस पे उठाया न जाएगा-
~Francis Beaumont
सौदाई सर कि दोश पे है बार आज भी
हम ढूँढते हैं दश्त में दीवार आज भी
क्या दाइमी मरज़ है तेरे हिज्र का मरज़
पाते नहीं शिफ़ा तेरे बीमार आज भी
क्या है जो बंद है मेरी ख़ातिर दर-ए-बहिश्त
मेरे लिए खुला है दर-ए-यार आज भी-
‘अर्हत’ जी क्यूँकर खोजें उस बस्ती में जा मीत नया
हम सहरा वाले हैं सो अकेले गाएँ कोई गीत नया
कोई नए सुर वाला ही गर जाए तो अब के जाए वहाँ
उस मजलिस में गीत पुराने हैं लेकिन संगीत नया
कितनी बार इन आँखों से वो गुज़रा वक़्त गुज़रता है
कितनी बार इक याद पुरानी कर देती है अतीत नया-
मेरी ख़ाक-ए-नुमू पे ज़रा सा पानी डाल
ऐ मिट्टी के देव मुझे पैकर में ढाल
दिल आँगन में खिला तेरी यादों का महर
आख़िर इस बदली में हुई कुछ धूप बहाल
सन्नाटों से गूँज रहा है ये शमशान
और शाने पर बैठ गया है इक बेताल
किसे ख़बर वो लोग वहाँ किस हाल में हैं
उस बस्ती के लोगों से अब बोल न चाल
कोई तमाशा है न तमाशाई ‘अर्हत’
दुनिया अब न रही बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल-
वेदों से पहले, तू था
वेदों के ईश्वर से पहले, तू था
पंच महाभूतों का देख विराट और विकराल रूप
तू व्यथित और व्याकुल हो रहा था,
और हाथ उठाकर कर रहा था याचना
यही याचना 'ऋचा' कहलाई
तमाम देवताओं के जन्मोत्सव, तूने ही मनाए
तूने ही सानंद मनाए पैग़ंबरों के जन्मदिन
हे मानव, तूने ही सूर्य को सूर्य कहा,
और सूर्य, 'सूर्य' हुआ
तूने ही कहा चांद को चांद, और चांद 'चांद' हुआ
सारे विश्व का नामकरण तू ने किया
और उसकी सारी चीजों को मान्य बनाया
हे प्रतिभाशील मानव,
तू ही सब कुछ है, और तेरी वजह से ही
यह संसार है, संजीव और सुंदर
–बाबूराव बागूल
हिंदी अनुवाद (मराठी से): अर्हत-
बिखरा हूँ अब जो शहर में मानिंद-ए-गर्द मैं
लौटा हुआ हूँ शब का, बयाबाँ-नवर्द मैं
पझ़मुर्दगी पज़ीर है आलम में हर नुमूद
होता हूँ ऐसे सब्ज़ कि होता हूँ ज़र्द मैं
उस चश्म-ए-गर्म-दीद की है मुझ को आरज़ू
वो देख ले इधर तो पिघल जाऊँ, सर्द मैं
यक-जाई-ए-बदन का भरम क्यूँ न टूट जाए
निकलूँ जो इस बदन से अभी फ़र्द फ़र्द मैं
‘अर्हत’ से दोस्ती है सो उसका है ये मआल
फिरता हूँ अब जो दर-ब-दर आवारागर्द मैं-
दुनिया छोड़ के कभी न जाने वाला मैं
दुनिया को ही दश्त बनाने वाला मैं
इक लम्हे को तुझे ख़ुदा करने के लिए
अपनी ख़ुदी को सदा मिटाने वाला मैं
दिन ढलते घर लौट के आने वाला तू
और हर ताक़ पे शम्अ जलाने वाला मैं
शजर शजर घर अपना बनाने वाले परिंद
डगर डगर पर पेड़ उगाने वाला मैं
मुझको अपने साथ में रखने वाला तू
तेरे किसी भी काम न आने वाला मैं-
होती रही है यूँ तो यहाँ पर सबों की सुब्ह
हूँ मुंतज़िर कि हो कभी मेरी शबों की सुब्ह
क्या भूल गए हैं इसे बेदारगान-ए-शब
होती ही नहीं दह्र में तीरा-शबों की सुब्ह
हो शब तो वो फक़त हो तेरे काकुलों की शब
हो सुब्ह तो वो सिर्फ़ हो तेरे लबों की सुब्ह
हम जाग रहे थे तो थी दुनिया के लिए रात
अब सो रहे हैं हम तो हुई है सबों की सुब्ह-
तेरे दुख की दवा करनी है मुझको
सो देख अब इब्न-ए-मरियम हो रहा हूँ
ترے دکھ کی دوا كرنی ہی مجھ کو
سو دیکھ اب ابنِ مریم ہو رہا ہوں-