नहीं आया कभी हमको,
किसी को भी दगा देना,
खता करके हर एक इल्ज़ाम
किसी पे भी लगा देना.!
निभाई है वफ़ा हर पल,
मगर फिर भी मिली हलचल,
चुकाऊंगा मैं हर क़ीमत,
मेरी गलती बता देना..!
मेरी नाकामियां अच्छी,
मुझे मासूमियत बख़्शी,
स्वतंत्र दर पे झुका मौला,
मुझे अपना बना लेना.! नहीं आया...
सिद्धार्थ मिश्र
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बात बात पर बात बनाने लगती हो,
जलवों की बरसात दिखाने लगती हो.!
खूब हंसाती हो तुम ख्वाबों में आकर,
मिलती हो तो मुझे रुलाने लगती हो..?
सुबह उठूं जब लिस्ट तुम्हारी रेडी है,
छुट्टी में घोड़े सा भगाने लगती हो..?
खून जलाते हैं हम अपना ऑफिस में,
और हमें ही डफर बताने लगती हो.!
दूर रहूं तो उमड़े कैसा प्यार तेरा..?
पास रहूं तो मुझे सताने लगती हो.!
गुस्से में ही रहने दो तो बेहतर है,
लेकिन तुम तो प्यार जताने लगती हो.! बात बात पर..
सिद्धार्थ मिश्र-
मोहब्बत का होगा असर धीरे–धीरे,
कटी है ये सारी उमर धीरे धीरे
अभी बदगुमां है उसे यूं ना छेड़ो,
मिलाएगी एक दिन नज़र धीरे धीरे
कभी रतजगे ये मुकम्मल भी होंगे,
वफाओं की होगी सहर धीरे धीरे
सिद्धार्थ मिश्र
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तुझे देखा था जी भर के,
मगर फिर भी शिकायत है,
समझ पाए तो समझोगे,
मुझे तुमसे मोहब्बत है..!
ये बारिश के तरानों में,
तेरा एहसास शामिल है,
मेरी गज़लें मेरी नज़में,
तेरी ख़ातिर वसीयत हैं... समझ पाए
सिद्धार्थ मिश्र-
क्या ऐसा भी हो सकता है?
जीवन में घटी हर घटना की व्याख्या नहीं की जा सकती.. कुछ घटनाएं हमें स्तब्ध कर देती हैं। क्या इस दुनिया के पार भी कोई दुनिया है? अभी जब स्वतंत्र ये सब सोच रहा था तो उसके पैरों में सिहरन थी.. फुल एसी में पसीने से भींगा हुआ था स्वतंत्र...आखिर ऐसा क्या हुआ होगा?
चलिए कहानी शुरू करते हैं..कहानी शुरू होती है स्वतंत्र की छुट्टियों से.. स्वतंत्र तीन महीने बाद घर लौट रहा था.. कोलकाता दिल्ली हाईवे पर गाड़ी पूरी रफ्तार के साथ दौड़ रही थी..स्वतंत्र सुबह 6 बजे कोलकाता से बनारस की ओर निकला था..शाम के 6 बज रहे थे..सर्दियों के दिन थे तो अंधेरा खूब घना हो चुका था.. लेकिन सफर 90 फीसदी खत्म हो चुका था..गाड़ी कैमूर आ चुकी थी जो लगभग यूपी के बॉर्डर के पास ही है..सुबह से गाड़ी चलाते शरीर दुख रहा था..झपकी आ रही थी.. खुद को फिर से रिफ्रेश करने गाड़ी एक शानदार से ढाबे के सामने खड़ी कर दी..हाथ मुंह धोने के बाद अब थोड़ी ताजगी महसूस हो रही थी..टेबल पर बैठते ही उसने चीज ग्रिल्ड सैंडविच और इलायची वाली चाय ऑर्डर की..स्वतंत्र अपने यूनिवर्सिटी के दिनों में छात्रसंघ चुनावों के दौरान यहां कई बार आ चुका था..यहीं से था उसका दोस्त अशोक..बेहद लंबा सा शांत स्वभाव का..उसकी एक ही ललक थी सेना में जाने की..तो यूनिवर्सिटी के साथ वो भर्तियों में भी जाया करता था.
क्रमशः अनुशीर्षक में
©️ सिद्धार्थ मिश्र
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दुनिया में सिर्फ तेरा एहतराम किया है,
हैरतजदा हैं लोग की, क्या काम किया है?
झुकती नज़र तुम्हारी बेकरार कर गई,
हमने तुम्हारी बज़्म में भी नाम किया है.!
तुमसे ही थी वो रौनकें तुम साथ ले गई,
जो कुछ बचा वो हमने भी कुर्बान किया है.!
तुमपे गजल लिखें या कोई नज़्म छेड़ दें,
स्वतंत्र जो किया, वो खुलेआम किया है..!
दुनिया मेरी मुरीद है पर तुम खिलाफ हो,
दीवानगी का तुमने ही इल्ज़ाम दिया है..!
सिद्धार्थ मिश्र-
प्रेम
व्याख्या से परे है,
यहां सफलता और
असफलता का कोई
निर्धारित मानक नहीं है,
अर्थात सबकुछ झोंकने के बाद,
परिणाम! शून्य भी हो सकता है,
अगर फिर भी साहस शेष है,
तो प्रेम के पथ पर आगे बढ़िए!!
सिद्धार्थ मिश्र-
गुलाबी होठों पे सफेद झूठ..
अजीब लगता है,
लेकिन हर बार ये झूठ,
कुबूल कर लेता हूँ.!
तिलस्म की तरह उलझी हुई
जिंदगी कैसे बिता लेते हैं लोग?
उसे जानकर समझ पाया..!
पारदर्शिता के अभाव में
बोलने पड़ते हैं हजारों झूठ,
हैरानी की सबसे बड़ी बात,
दिन से बेहद अलग और स्याह रात
काश कि समझा पाता,
खामख्याली की धुंध में,
हक़ीक़त का आईना दिखा पाता,
लेकिन जाओ छोड़ दिया तुम्हें,
तुम्हारे हाल पर..
गुलाबी होठों पे सफेद झूठ..
अजीब लगता है,
फिर भी!!
सिद्धार्थ मिश्र-
नववर्ष में नव हर्ष का संचार हो
सफलता के शीर्ष तक विस्तार हो
वेदना के अश्रुओं का नाश हो,
आपका सौभाग्य पर अधिकार हो.!
शुभ भाव से मैं दे रहा शुभ कामनाएं,
ईश्वर समूचे विश्व को सुखमय बनाएं.!
सिद्धार्थ मिश्र-
बेखबर हैं वो मुझसे उनसे ये शिकायत है,
बेबसी का ये आलम उनकी ही इनायत है.!
दिल दिया है दुश्मन को ये गुनाह है मेरा,
शाम की उदासी में ज़िक्र है तो बस तेरा,
मुझको जो रुलाती है बेसबब मोहब्बत है.!
बेखबर हैं वो....
तोड़ कर ये दिल मेरा कैसे मुस्कुराते हो?
सामने हो तुम मेरे नजरें क्यों चुराते हो.?
क्या स्वतंत्र से तुमको अब कोई अदावत है.?
बेखबर...
सिद्धार्थ मिश्र
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