सिद्धार्थ मिश्र   (स्वतंत्र)
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Joined 4 April 2018


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Joined 4 April 2018

गुलाबी होठों पे सफेद झूठ..
अजीब लगता है,
लेकिन हर बार ये झूठ,
कुबूल कर लेता हूँ.!
तिलस्म की तरह उलझी हुई
जिंदगी कैसे बिता लेते हैं लोग?
उसे जानकर समझ पाया..!
पारदर्शिता के अभाव में
बोलने पड़ते हैं हजारों झूठ,
हैरानी की सबसे बड़ी बात,
दिन से बेहद अलग और स्याह रात
काश कि समझा पाता,
खामख्याली की धुंध में,
हक़ीक़त का आईना दिखा पाता,
लेकिन जाओ छोड़ दिया तुम्हें,
तुम्हारे हाल पर..
गुलाबी होठों पे सफेद झूठ..
अजीब लगता है,
फिर भी!!

सिद्धार्थ मिश्र

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नववर्ष में नव हर्ष का संचार हो
सफलता के शीर्ष तक विस्तार हो
वेदना के अश्रुओं का नाश हो,
आपका सौभाग्य पर अधिकार हो.!

शुभ भाव से मैं दे रहा शुभ कामनाएं,
ईश्वर समूचे विश्व को सुखमय बनाएं.!

सिद्धार्थ मिश्र

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बेखबर हैं वो मुझसे उनसे ये शिकायत है,
बेबसी का ये आलम उनकी ही इनायत है.!

दिल दिया है दुश्मन को ये गुनाह है मेरा,
शाम की उदासी में ज़िक्र है तो बस तेरा,
मुझको जो रुलाती है बेसबब मोहब्बत है.!
बेखबर हैं वो....


तोड़ कर ये दिल मेरा कैसे मुस्कुराते हो?
सामने हो तुम मेरे नजरें क्यों चुराते हो.?
क्या स्वतंत्र से तुमको अब कोई अदावत है.?
बेखबर...

सिद्धार्थ मिश्र

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छुपना अब तो बंद करो,
मिलने का प्रबंध करो.!

निभा सको जो जीवन भर,
ऐसा एक अनुबंध करो.!

प्यार करो या युद्ध करो,
कुछ तो मेरे संग करो..!

नखरे वखरे भूलो तुम,
दूर सभी प्रतिबंध करो.!

स्वतंत्र तुम्हारा साथी है,
प्रेम करो या द्वंद करो..!

सिद्धार्थ मिश्र

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यह समय प्रतिकूल है माना मगर,
बैठ सकता हूं नहीं मैं हार कर,
क्या लिखेंगे हम कहानी उम्र की?
मुश्किलें ही पेश ना आई अगर.!

सिद्धार्थ मिश्र

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स्वतंत्र अपना सुख चैन खोना पड़ेगा

सिद्धार्थ मिश्र

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सब अपने लहजे में बात बनाएंगे
स्वतंत्र के जैसा दर्द कहां से लाएंगे?
अपनी शर्तों पे जीवन जीना सीखा है,
लोग मेरे किस्से एक दिन दोहराएंगे.!

सिद्धार्थ मिश्र

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धोखा नज़र का मुझे हो रहा है,
मेरे साथ सारा गगन रो रहा है.!

बारिश की बूंदें बनी मेरी उलझन,
मुझे दिन चढ़े ही भरम हो रहा है!

सियासत के जैसी बनी है मोहब्बत,
मेरा यार ही बदचलन हो रहा है..!

जो अंबर सा छाया हुआ मेहरबां था,
वो आंचल वफा का कफन हो रहा है!

सिद्धार्थ मिश्र

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डांट दिया रात ने, हां मुझे पता नहीं?
एक अधूरी बात ने, क्या गलत है क्या सही?
नींद हमसे दूर है, मात्र प्रेम ध्येय था,
देह थक के चूर है, सूत्र बिन प्रमेय था,
स्वप्न अश्रु बन गए, मैं उलझ के रह गया,
दूर हमसे वन गए, वेदना में कह गया,
अब कहां पे छांव है? भ्रम सदृश या कल्पना,
तिक्त गहन घाव है, रंग रहित अल्पना,
ये दिया है साथ ने, सीख दी है मात ने
एक अधूरी बात ने.! एक अधूरी बात ने.!🥹

सिद्धार्थ मिश्र

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सुबह शाम आए तेरी याद हाए,
उदासी के मंजर गज़ल गुनगुनाए!

गिरा दो सनम बेरुखी की दीवारें,
नज़र ने नज़र हैं शिकवे जताए..!

तेरे बिन सुबह का मज़ा खामखा है,
हैं ठहरी अधूरी मोहब्बत की राहें..!

चले आओ तुम सारे शिकवे भुलाकर,
मेरे लफ़्ज़ गीतों में ढलकर बुलाएं..!

कई रात से तुम भी सोई नहीं हो,
जगाया है तुमको चलो अब सुलाएं..!

मुझे माफ कर दो यही है गुजारिश,
मेरे नाम कर दो तुम अपनी बलाएं..!

तुम्हारे सफ़र में उजालों की खातिर,
स्वतंत्र आज उल्फत में खुद को जलाएं.!

सिद्धार्थ मिश्र

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