मकड़ियां बुनती है जाल
चिह्न लगाती है,एक निश्चित भाग पर
देती हैं जिसे "घर" का नाम
वो घात लगा कर बैठती हैं,
उन्हें नहीं स्वीकार्य, कोई "अतिथि"
जो परिधि की सीमा लांघ कर
आ पहुंचा हो भीतर।
क्रोधवश कर प्रहार, झट करती हैं, शिकार
इस प्रकार खाद्य श्रृंखला चलती रहती है
इससे उदर पूर्ति होती रहती है
विज्ञान देता है, इसे मकड़ियों की प्रकृति का नाम
मैं भी तुम्हारे चारो ओर
घेर देना चाहती हूं, एक घेरा
तुम्हें कैद कर लेना चाहती हूं
स्वयं के हृदय की परिधि के भीतर
तुम पर अंकित कर देना चाहती हूं
मेरी काजल का चिह्न
इस प्रकार सुनिश्चित करना चाहती हूं
मेरा स्थाई निवास, सदैव-सदैव के लिए
तुम्हारे हृदय के सीमा क्षेत्र में
तुम मेरे इस प्रेम को "ईर्ष्या" का नाम देते हो
और, मैं....प्रेम की प्रगाढ़ता से उपजे हुए "भय" का।
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