अब लाज की रेखा पार करो
हे प्रियवर मुझको प्यार करो
कौमार्य अब ताड़-ताड़ करो
ब्रह्मचर्य मुझ पर निसार करो
पिया निशा निमंत्रण है तुमको
अंग अंग आकर रसपान करो
पहना दो अपने बाजु हार
अब प्रेम प्रत्यंचा बाण करो
अतृप्त देह की लालसा को
फुहार सींच उद्गार करो
आकर मिल जाओ मुझमें तुम
नवजीवन का संचार करो
मेरी दैहिक ज्वाला शांत करो
प्रेम पूरी रात उपरांत करो
मत तड़पाओ न अशांत करो
बस मैं और तुम एकांत करो-
नितांत घनिष्ठ है हमारा सहचर्य
इसमें तनिक भी नहीं है आश्चर्य
हम प्रेममय व्युत्पत्ति हैं ब्रह्मचर्य
लोग व्यर्थ हमसे करते हैं साश्चर्य
मैं लेती हूँ तुम पर तत्क्षण संज्ञान
तुम हो पूर्ण शशांक सम तत्वज्ञान
संपूर्ण आकाशगंगाओं का विज्ञान
मैं कुमुदुनी सरिता के मध्य अज्ञान
यद्यपि तुम मेरे संग अंग अंग विहंग
रोम रोम में पुलकित पोर पोर निहंग
करते हो तत्क्षण तुम मेरा ध्यान भंग
बजाकर प्रेमरग उन्मत्त उन्मुक्त मृदंग-
" #पर्युषण_पर्व" - दसवां दिन :- #"उत्तम_ब्रह्मचर्य_धर्म"
नौ दिनों में हमने खुद से कषाय और बुराइयों को दूर किया तथा सभी धर्मों को अंगिकित किया, अब अंतिम धर्म अर्थात सबसे कठिन धर्म ब्रह्मचर्य धर्म होता हैं, हम सभी अपने बाकी इंद्रियों में तो काबू कर लेते हैं किंतु काम इंद्री में काबू करना कठिन होता हैं ।
मनुष्य काम इंद्री को काबू कर ब्रह्म अर्थात स्वयं में खो जाए वही ब्रह्मचर्य धर्म का पालन कहलाता हैं।
सभी वासनाओं से दूर हट कर सभी इंद्रियों को काबू कर के ब्रह्म अर्थात स्वयं में खो जाना यह सिर्फ
"उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म" पालन करने से होता हैं ।।
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आज विश्व में ब्रह्मचर्य की, सबसे अधिक जरुरत है
धरा सभ्यता और संस्कृति, दुखी पतित और शोषित है
आज की पीड़ी मौज मस्ती में, मर्यादाएं भुला बैठी
देह वासना कामुकता में, “शील” को खेल बना बैठी
गैर संग रिश्तों नातों में, व्यभिचार ले रहा जनम
माता बहिन सुता के रिश्ते, टूट रहे हो रहा अधम
सड़ गल कर मरने की नियति, कामरोगी की निश्चित है
अंत भला चाहो उत्तम गति, “ब्रह्मचर्य” आवश्यक है-
द्वितीय दिवस माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना
पद्मिनी सम नार सभी, दाह करे स्वशरीर।
उर्वशी को माँ कहे, नर अर्जुन से धीर।।
माँ ब्रह्मचारिणी विश्व के प्राणीमात्र को संयम एवं ब्रह्म का आचरण प्रदान करें । स्त्रियाँ पद्मिनी सी शीलवती होकर, शील रक्षा हेतु स्वयं को अग्नि में भस्मीभूत करें।
पुरुष अर्जुन जैसे धीर हों, जो अप्सरा उर्वशी के प्रणय-निवेदन को अस्वीकार कर उसमें मातृ स्वरूप का दर्शन कर, स्वयं नपुंसकता का श्राप भी सहर्ष स्वीकार करें।-
"Sexuality is
nothing but
a venereal itch
that arises
with a spark
and burns
the treasured
vitality within
the blink of eyes"
✍BHARAT "MALI"-
ब्रह्मचर्य मात्र काम से दूरी नहीं अपितु
अंतःकरण को विकार मुक्त कर
निर्मल कर लेने की एक स्थिति है,
चित्त को साध लेने की एक दशा है,
स्थित प्रज्ञ हो जाने की एक अवस्था है,
ब्रह्म के मार्ग का अनुसरण करना है,
सच तो ये है कि ब्रह्मचर्य तो इस अस्तित्व का अनुसरण है।
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कालिदास संवाद _
ये भटकते कलुषित मेघ दल,
मेरे ह्रदय पर तुम्हारी विरह_वेदना का,
बाण निरंतर चलाए ही जा रहे हैं,
और मैं अपने अंतर्मन में अपनी विकलता के,
अश्रुओं को रोके इन मेघों को एक टक देखता,
इसी सोंच में डूब गया प्रिये कि,
जीवन का सौहार्द समझ कर मैंने तेरा था वरण किया,
अब भटक रहा हूं वन_उपवन खुद का जीवन मरण किया,
अब जा बैठा हूं कंदरा के गढ़ में इन मेघों से तुझे पत्र लिखा,
कामाग्नि का अपने शमन है करके ब्रह्मचर्य का व्रत है लिया,
दिया जो श्राप आवेश में तूने उसका मैंने वरण किया,
अब लौटूंगा तभी प्रिये जब जड़ता मन की चेतन कर लूंगा...
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!! दसलक्षण पर्व का दसवां दिन !!
! उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म !!
ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्या करना, लीन होना वास्तविक उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है।
इसके साथ बाहर में स्व-स्त्री/पति में संतुष्ट होना, वह व्यवहार ब्रह्मचर्य अणुव्रत नाम पाता है।
अन्धा मनुष्य चक्षु से ही नहीं देखता है किन्तु विषयों में अंधा हुआ मनुष्य किसी भी प्रकार से नहीं देखता है।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:-
हिन्दू साधुओं और बाबाओ के कारनामे आये दिन सुनाई दे रहे हैं।
साधुत्व तप का कठिन मार्ग होता है, सुविधाओ का आश्रम नहीं।
अब तो हिन्दुओ को साधु धर्म की रक्षा के लिए जैन मुनियों के मूल गुणों को साधुत्व के लिए आवश्यक कर देना चाहिए।
ब्रह्मचर्य की मर्यादा दिगम्बरत्व के द्वारा ही प्रमाणित हो सकता है।
इंद्रियों के अनुशासन के बिना साधुत्व नही साधा जा सकता, चाहे वो चर्म इन्द्रिय हो, जिव्हा इन्द्रिय हो या घ्राण या चक्षु या कर्ण इन्द्रिय।-