शाम का "सूरज"
मैं वो शाम हूं जो कभी ढलती नहीं,
मेरा सूरज ही हर रोज मुझे,
अलविदा कह कर चला जाता है,
ना जाने कितनी चाहत है उसे,
इन पहाड़ों इन दरख्तों के बाहों में सिमटने की,
जागती रहती हूं मैं इंतज़ार में उसके,
तो भला चैन उसे सो कर कैसे आता है,
कहां तक भटकूं अब उसकी तलाश में मैं,
अंधेरा तो अब मेरी भी आंखों में उतर आता है,
जलते रहना उसकी फितरत ही सही,
फिर तन मेरा क्यों झुलसता सा जाता है,
मैं एक सवाल सी खड़ी हूं किसी दोराहे पर,
जहां भटकना भी है उम्र भर और मंज़िल को भी कदमों तक लाना है,
इंतज़ार उसका ही है मुझे मगर वो आया ही नहीं,
क्या करती कब तक किनारे पर खड़ी मौजों से भिगोती ख़ुद को,
तो तोड़ दिया मैंने खुद को टुकड़े-टुकड़े कर के पत्थरों सा,
अब बांध दिया है मैंने उसको अपनी ही सीमाओं के भीतर,
हर रोज़ ढलता है वो अब मेरी गहराइयों में जाकर,
और मैं एक शाम सी ठहर जाती हूं उसके सुर्ख रंगों में नहाकर....
_अभिव्यक्ति मानस पटल की
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