Sudha Yadav   (अभिव्यक्ति मानस पटल की)
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Joined 19 July 2020


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26 AUG 2022 AT 1:05


औरतों का पारंपरिक होना कोई रिवायत नहीं है, बल्कि एक रियायत है,
मर्दों से भरे इस समाज में उनके जीने के लिए,

जिसमें उन्हें अपने हक़ और हुक़ूक़ के बदले ये पारंपरिकता तोहफ़े के तौर पर दी जाती है।।

भारतीय पुरुषों की श्रेष्ठता का आश्रय सिर्फ़ इसी बात से लग जाता है कि....
कोई भी श्रेष्ठ स्त्री सिर्फ़ उनके लिए प्रशंसा करने योग्य हो सकती है किंतु जीवन - यापन के लिए वह कभी उसका चयन नहीं करेंगे क्योंकि स्वयं किसी स्त्री की दासता कैसे कोई पौरुष से परिपूर्ण पुरुष स्वीकार कर सकता है....
यह तो स्त्री के अधिकार की संपत्ति है और इस बात का चयन भी समाज के कुछ चुनिंदा पुरुष निर्माताओं ने कर रखा है।।

_अभिव्यक्ति मानस पटल की





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19 AUG 2022 AT 22:27

"पुरुष का पुरुषार्थ"

किसी पुरूष का पुरुषार्थ उसके पौरुष का नहीं वरन, किसी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ एक ऋण है उस पर,
जिसको उतारने के स्थान पर वह उसे सिर्फ दासता की जंजीरे और परंपराओं से घिरा एक अभेद्य चक्रव्यूह देता है।


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11 JUN 2022 AT 2:05

"एकांत क्या है?"

विचारों की वैचारिकता से पृथक वह शून्य जहां विषाद या विषय दोनों में से कोई एक भी अंतःकरण से उठती प्रतिध्वनि के परावर्तन का कारण ना बने।

"स्थान"

इस धरा के तल का हर एक बिंदु एकांतमय है किंतु इसे सरलता से अनुभव कर पाना अत्यंत ही दुर्लभ।
धरती का वो स्वरूप जो सबसे ज्यादा संतुलित और
तृप्त है मेरे अभिज्ञान में वह स्थान एक ही है "पहाड़"।
जिसकी निर्मितता ही विधाता ने अस्थिर को स्थिर करने के लिये की है।

"समय"

समय एक ऐसा यंत्र जो किसी तंत्र-मंत्र से नहीं चलता अपितु एक ऐसी व्यवस्था से चलता है जिसकी कोई प्रणाली नहीं। जहां शताब्दियों की यात्रा को विराम मिलता है और आरंभ भी होता है एक ऐसी खोज का जो अनंत की ओर अग्रसर है।

"मनुष्य"

मनुष्य कालांतर में अत्यधिक मानविक बन गया है, जिससे उसके भीतर का पाशविक गुण क्षीणता की ओर अग्रसर हो गया है। पशु अपने पाशविक गुणों के कारण पशु नहीं अपितु मस्तिष्क के अल्पविकास के कारण पशु है परन्तु इसके विपरीत मानव की कुत्सिकता उसके अत्यधिक विकास के कारण है। ऐसा उन्नति जो श्रृंखलाओं को जोड़ने की अपेक्षा उसके अपमार्जन का द्योतक बने.... क्या आवश्यक है ये? अंतर्मन के स्थिर सरोवर के नीर की विचलता का कारण बने.... क्या आवश्यक है ये?

मन-मन की कोई ठौर ना पाए,
राह चलत बस कुनबा बनाए,
प्राण जिया से कब उड़ि जाए,
हरि नाम लियो नहिं मन पछताए।।

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20 MAR 2022 AT 14:58

शाम का "सूरज"

मैं वो शाम हूं जो कभी ढलती नहीं,
मेरा सूरज ही हर रोज मुझे,
अलविदा कह कर चला जाता है,
ना जाने कितनी चाहत है उसे,
इन पहाड़ों इन दरख्तों के बाहों में सिमटने की,
जागती रहती हूं मैं इंतज़ार में उसके,
तो भला चैन उसे सो कर कैसे आता है,

कहां तक भटकूं अब उसकी तलाश में मैं,
अंधेरा तो अब मेरी भी आंखों में उतर आता है,
जलते रहना उसकी फितरत ही सही,
फिर तन मेरा क्यों झुलसता सा जाता है,
मैं एक सवाल सी खड़ी हूं किसी दोराहे पर,
जहां भटकना भी है उम्र भर और मंज़िल को भी कदमों तक लाना है,

इंतज़ार उसका ही है मुझे मगर वो आया ही नहीं,
क्या करती कब तक किनारे पर खड़ी मौजों से भिगोती ख़ुद को,
तो तोड़ दिया मैंने खुद को टुकड़े-टुकड़े कर के पत्थरों सा,
अब बांध दिया है मैंने उसको अपनी ही सीमाओं के भीतर,
हर रोज़ ढलता है वो अब मेरी गहराइयों में जाकर,
और मैं एक शाम सी ठहर जाती हूं उसके सुर्ख रंगों में नहाकर....

_अभिव्यक्ति मानस पटल की






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9 MAR 2022 AT 19:22

अपनी तन्हाई में इस क़दर गूंजती हूं मैं,
कि लफ़्ज़ नहीं पूरी क़िताब ही लिख दूं,

बेशक़ भूल जाये मुझे हर शख़्स यहां,
मैं ख़ुद को स्याह करके उसके जज़्बात ही लिख दूं,

ना मयस्सर हो किसी की सोहबत मुझे,
दुनिया को मैं अपना बकायेदार ही लिख दूं,

गुरेज नहीं है उनके किसी जुर्म से यहां,
खताएं उनकी सब अपने नाम ही लिख दूं,

अरे कोई कागज़,कलम,दवात तो मुझे दे,
कि मैं अपना हर शेर उनपे उधार ही लिख दूं।।

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9 MAR 2022 AT 16:55

मैं दुःख की कोई खेप नहीं,
एक धारा हूं निश्छल,निर्मल,
मैं प्रांगण हूं उस हर घर का,
जिसमें सिमटी हर राह नई....

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9 JAN 2022 AT 22:52

मोरी नैय्या डूबत जाए मझधार,
भव से पार लगाओ हे! खेवनहार,
विनती करूं तोसे अरज सुनो मोरी,
नैनन मूंद खड़ी बीच काहे बिसरे तुम मोहे,
प्रीति नहिं ये झूठी मोरी दरस को अंखियां तरसे,
कासे कहूं हिय की पीर इत कोऊ कहां है तेरे जैसो,
मोरी नैय्या डूबत जाए मझधार,
भव से पार लगाओ....
ढ़ूढ्यों तोहे इस जग में धरती के कण कण में,
माटी का तन ये लिए माटी इस मन को किए,
अब कित ना जाऊं मैं जीवन त्यज्य तुझे पाऊं मैं,
अचल भक्ति का ऐसो मोहे नंदनंदन दे दो वरदान!
मोरी नैय्या डूबत जाए मझधार,
भव से पार लगाओ....

_अभिव्यक्ति मानस पटल की



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2 JAN 2022 AT 1:51

हुनरमंदों की महफ़िल में, एक हम ही बे-सहूर नज़रे झुकाए बैठे रहे,
कि दिखावा था जहां हुनर सबका, हम अपनी मासूमियत पर ही गश खाये हंसते रहे।।

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2 JAN 2022 AT 1:20

"नया साल"

फ़िर नई किताब का पहला पन्ना खुला,
वही जानी पहचानी सी खुशबू दिल-ओ-दिमाग पर छा गई है,
क्योंकि अभी सब कुछ नया-नया सा है,
सुबह के उजले सुनहरे सवेरे की तरह,
जैसे-जैसे शाम का धुंधला सूरज पूरी तरह,
रात्रि के गर्भ में समाहित हो जायेगा उसी क्षण,
ऊर्जा का अप्रतिम विस्तार भी नगण्यता की ओर अग्रसर हो जायेगा,
किसी नए साल का प्रथम दिवस हो या कोई भी अन्य दिन,
सब कुछ नवीनता के प्रथम चरण से लेकर अंतिम चरण तक आते-आते ऊर्जा विहीन हो जाता है,
किताब का पहला पन्ना जो पहले दिन खुलते ही जितनी हृदय मोहक सुगंध से भरा हुआ लगता है, वह अंतिम पृष्ठ तक आते-आते जीर्णता से युक्त हो जाता है,
परंतु कुछ शेष रहता है इन सबके बीच भी,
कुछ स्मृतियों से भरे चित्र मानस पटल पर अंकित हो जाते है जो एक नई तरह की नवीनता के निर्माण की आधारशिला बनते हैं,
बीता वर्ष भले ही बीत गया परंतु उसकी स्मृतियों का रेखांकन समस्त संसार के मानस पटल पर अंकित हो गया,
कुछ अच्छा रहा और कुछ बुरा भी परंतु इन सबके बीच आपका अपने आपमें संचित होना ये सबसे महत्पूर्ण रहा और ये संचयन विगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी निरंतरता की नियति को प्राप्त करे।।

मेरी अप्रतिम शुभकामनाओं के साथ सभी रचनाकर्ताओं को नव वर्ष का अभिनंदन....

_अभिव्यक्ति मानस पटल की




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15 DEC 2021 AT 3:03

दर -ब- दर भटकना मेरा,
सिर्फ मेरी मंज़िल की ही सौगात ना थी,
ये सफ़र था उन रास्तों का भी,
जिन पर गुज़री तन्हा मेरी हर रात थी।

काश की वो देख पाता कि,
मैं खड़ा हूं ज़िंदगी के जिस मोड़ पर,
वहां मैंने हर ख़्वाब बेचे हैं अपने,
उस सुकूं भरी एक नींद के लिए।

चलते - चलते ना जाने कब,
मेरी ज़िंदगी से वो मोड़ भी
गुज़र गया,
जहां टूटे हुए दो रास्तों पर हमने,
पत्थरों का एक बेमिसाल पुल बनाया था।

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