अनजान लोग और अनजान रास्ते अक्सर कुछ न कुछ नया सिखा कर जाते है,
क्योंकि रोज़ मिलने वालों की तरह उनमें खामियां निकालने का हुनर नहीं होता.....-
I am Sudha. I love Indian culture and tradition. I am a... read more
श्रेष्ठता समाज में प्राप्त कोई विशिष्ट स्थान नहीं जो किसी प्रकार के धन और वैभव से अलंकृत हो अपितु इसके विपरीत मस्तिष्क के एक आयाम की ऐसी वैचारिक उन्नति है जो, किसी निम्न को भी उसकी निम्नता से परे, श्रेष्ठता का गौरव दे सके....
-
औरतों का पारंपरिक होना कोई रिवायत नहीं है, बल्कि एक रियायत है,
मर्दों से भरे इस समाज में उनके जीने के लिए,
जिसमें उन्हें अपने हक़ और हुक़ूक़ के बदले ये पारंपरिकता तोहफ़े के तौर पर दी जाती है।।
भारतीय पुरुषों की श्रेष्ठता का आश्रय सिर्फ़ इसी बात से लग जाता है कि....
कोई भी श्रेष्ठ स्त्री सिर्फ़ उनके लिए प्रशंसा करने योग्य हो सकती है किंतु जीवन - यापन के लिए वह कभी उसका चयन नहीं करेंगे क्योंकि स्वयं किसी स्त्री की दासता कैसे कोई पौरुष से परिपूर्ण पुरुष स्वीकार कर सकता है....
यह तो स्त्री के अधिकार की संपत्ति है और इस बात का चयन भी समाज के कुछ चुनिंदा पुरुष निर्माताओं ने कर रखा है।।
_अभिव्यक्ति मानस पटल की
-
"पुरुष का पुरुषार्थ"
किसी पुरूष का पुरुषार्थ उसके पौरुष का नहीं वरन, किसी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ एक ऋण है उस पर,
जिसको उतारने के स्थान पर वह उसे सिर्फ दासता की जंजीरे और परंपराओं से घिरा एक अभेद्य चक्रव्यूह देता है।
-
"एकांत क्या है?"
विचारों की वैचारिकता से पृथक वह शून्य जहां विषाद या विषय दोनों में से कोई एक भी अंतःकरण से उठती प्रतिध्वनि के परावर्तन का कारण ना बने।
"स्थान"
इस धरा के तल का हर एक बिंदु एकांतमय है किंतु इसे सरलता से अनुभव कर पाना अत्यंत ही दुर्लभ।
धरती का वो स्वरूप जो सबसे ज्यादा संतुलित और
तृप्त है मेरे अभिज्ञान में वह स्थान एक ही है "पहाड़"।
जिसकी निर्मितता ही विधाता ने अस्थिर को स्थिर करने के लिये की है।
"समय"
समय एक ऐसा यंत्र जो किसी तंत्र-मंत्र से नहीं चलता अपितु एक ऐसी व्यवस्था से चलता है जिसकी कोई प्रणाली नहीं। जहां शताब्दियों की यात्रा को विराम मिलता है और आरंभ भी होता है एक ऐसी खोज का जो अनंत की ओर अग्रसर है।
"मनुष्य"
मनुष्य कालांतर में अत्यधिक मानविक बन गया है, जिससे उसके भीतर का पाशविक गुण क्षीणता की ओर अग्रसर हो गया है। पशु अपने पाशविक गुणों के कारण पशु नहीं अपितु मस्तिष्क के अल्पविकास के कारण पशु है परन्तु इसके विपरीत मानव की कुत्सिकता उसके अत्यधिक विकास के कारण है। ऐसा उन्नति जो श्रृंखलाओं को जोड़ने की अपेक्षा उसके अपमार्जन का द्योतक बने.... क्या आवश्यक है ये? अंतर्मन के स्थिर सरोवर के नीर की विचलता का कारण बने.... क्या आवश्यक है ये?
मन-मन की कोई ठौर ना पाए,
राह चलत बस कुनबा बनाए,
प्राण जिया से कब उड़ि जाए,
हरि नाम लियो नहिं मन पछताए।।
-
शाम का "सूरज"
मैं वो शाम हूं जो कभी ढलती नहीं,
मेरा सूरज ही हर रोज मुझे,
अलविदा कह कर चला जाता है,
ना जाने कितनी चाहत है उसे,
इन पहाड़ों इन दरख्तों के बाहों में सिमटने की,
जागती रहती हूं मैं इंतज़ार में उसके,
तो भला चैन उसे सो कर कैसे आता है,
कहां तक भटकूं अब उसकी तलाश में मैं,
अंधेरा तो अब मेरी भी आंखों में उतर आता है,
जलते रहना उसकी फितरत ही सही,
फिर तन मेरा क्यों झुलसता सा जाता है,
मैं एक सवाल सी खड़ी हूं किसी दोराहे पर,
जहां भटकना भी है उम्र भर और मंज़िल को भी कदमों तक लाना है,
इंतज़ार उसका ही है मुझे मगर वो आया ही नहीं,
क्या करती कब तक किनारे पर खड़ी मौजों से भिगोती ख़ुद को,
तो तोड़ दिया मैंने खुद को टुकड़े-टुकड़े कर के पत्थरों सा,
अब बांध दिया है मैंने उसको अपनी ही सीमाओं के भीतर,
हर रोज़ ढलता है वो अब मेरी गहराइयों में जाकर,
और मैं एक शाम सी ठहर जाती हूं उसके सुर्ख रंगों में नहाकर....
_अभिव्यक्ति मानस पटल की
-
अपनी तन्हाई में इस क़दर गूंजती हूं मैं,
कि लफ़्ज़ नहीं पूरी क़िताब ही लिख दूं,
बेशक़ भूल जाये मुझे हर शख़्स यहां,
मैं ख़ुद को स्याह करके उसके जज़्बात ही लिख दूं,
ना मयस्सर हो किसी की सोहबत मुझे,
दुनिया को मैं अपना बकायेदार ही लिख दूं,
गुरेज नहीं है उनके किसी जुर्म से यहां,
खताएं उनकी सब अपने नाम ही लिख दूं,
अरे कोई कागज़,कलम,दवात तो मुझे दे,
कि मैं अपना हर शेर उनपे उधार ही लिख दूं।।-
मैं दुःख की कोई खेप नहीं,
एक धारा हूं निश्छल,निर्मल,
मैं प्रांगण हूं उस हर घर का,
जिसमें सिमटी हर राह नई....-
मेरा कुछ मुझमें ही रहने दो,
मेरे भावों को मुझमें अव्यक्त पड़े ही रहने दो,
कुछ पलकों पर ठहरे हैं, कुछ अधरों के बीच दबे,
कमल की पंखुड़ियों की भांति इन्हें अधखिला ही रहने दो,
मेरा कुछ मुझमें ही रहने दो,
मेरे भावों को मुझमें....
कुछ अर्धनिद्रा में झूले हैं, कुछ स्वप्न सेज को त्याग गए,
रात मौन उस शेखर की भांति इन्हें निश्तेज ही जलता रहने दो,
मेरा कुछ मुझमें ही रहने दो,
मेरे भावों को मुझमें....
कुछ गूढ़ विषाद की ओट लिए, कुछ हर्ष की चिंगारी में जले,
मेरे हृदय के बंद उस कोने में इन्हें पापमुक्त गूंजता रहने दो,
मेरा कुछ मुझमें ही रहने दो,
मेरे भावों को मुझमें....।।-
सफ़र की शुरुआत में ही सदियां गुज़र गई,
वरना कुछ मुकाम तो मेरा भी था इस जहां में,
कारवां ही तय करते रहे बस उम्र भर हम,
अलग हुए सबसे तो कोई रास्ता ही ना था,
अब करने को ना शौक़ रहा ना ज़िन्दगी के फ़लसफे़,
एक अदनी सी चादर ओढ़ी है वो भी झीनी हुई जाती है...-