सखी...!
गांवों के मरने में
कुछ हाथ उन लोगों का भी रहा
जिन्होंने किया तिरस्कार
अपने पुरखों की बोलियों का,
विकास के नाम पर बोली आंग्ल भाषा
अथवा शहरी शब्दावली,
पर सखी...! एक बात कहूं
आंचलिक बोलियों में
गांवों का अस्तित्व था ।-
बड़े भैया ने कहा कि वह बाप है मेरा,
उसमें दोष देखना का अधिकार नहीं मुझे।
अतः तर्क और बुद्धि को छिटक कर
मैं बस उनकी सेवा कर रहा हूं।-
मैंने पूछा: "अब हिम्मत कहां से आती है?"
उसने कहा:" पापा से... "
मैं चौंका और फिर से प्रश्न किया कि
तुम्हारे पापा तो अब नहीं हैं ।
उसने मुस्कुरा के कहा: हैं... सर्वदा हैं "
पापा देह जगत के बंधनों से परे
विचार थे इसलिए वे मेरे लिए थे,
हैं और हमेशा रहेंगे
और मुझे हमेशा हिम्मत देते रहेंगे।-
उसने पूछा कि मां को लेकर
क्या यादें हैं...?
तो अनायास ही मेरे मुँह से निकला कि
मां तो अद्भुत थी।-
फिर मैंने अपने बेटे से कहा कि
मैं अपनी तरह का
अकेला आदमी था पूरे गाँव में ,
घुला-घुला एक अघुलनशील आदमी।-
श्वान हो गए हैं पिता ;
खिसकते खिसकते उनकी चारपाई
अब घर के बाहर आ चुकी है।-
कौए अद्भुत हैं
और असाधारण भी,
वे कदाचित कड़ी हैं
इह लोक
औ उह लोक के मध्य ,
कहते हैं
वे वाहक भी हैं
मृत, अदृश्य पूर्वजों के।-
निसंतान दंपत्तियों के मरने पर
अनाथ रह गए
उनके घर-आंगन,
कबर की मिट्टी के जैसी दमघोंटू धूल
जमा हो गई उनके ऊपर,
दीवारों की संघों से
झांकने लगे पीपल औ
कीकर के अवांछित वृक्ष,
अपने वाशिंदों के चले जाने के बाद
वे हो गए मजबूर जीने को
एक तिरस्कृत और बोझिल जीवन।
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