ऐ, मेरी रूह, तू जिंदा है, या मर गई ,
मुझे कुछ, महसूस क्यो नही होता.
तू मेरे, ज़िस्म में है, ख़बर नही ,
क्या? ये ज़िस्म मेरा है, पता नही.
अपने ही कंधों पर, खुद की लाश उठाये फिरती हुँ,
दफन करने के लिए ,आती नजर, कोई कब्र नही.
कितनी बेरहम हुँ मैं ,
खुद की ही, रूह को नोच खाया है .
कोई छूता मुझे ,
मैंने, खुद ही अपने ज़िस्म को,
अपने, हाथों से जलाया है.
कितना डरावना, (भयावह) है ये मंज़र,
जैसे, आकाल पड़ी ,धरती हो बंजर ,
हुआ, सब कुछ स्वाहा बस,हाहाकार हुआ.
हुआ सब कुछ स्वाहा,बस,हाहाकार हुआ .
-डॉ मंजू जुनेजा
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