होता बालक निर्दोष, निश्चिन्त, सबकुछ सरल समझता हूँ!
कभी जिद्दी, कभी अड़ियल टट्टू, कभी आँख का तारा बनता हूँ!
होता बेटा अपने माँ बाप का उत्तरजीवी सूचक से,
कभी राम, कभी श्रवण, कभी परसुराम सा बन जाता हूँ!
होता प्रेमी किसी प्रेयसी का गढ़ता प्रेम की परिभाषा,
कभी कृष्ण तो कभी शिव तो कभी कामदेव मैं बन जाता हूँ!
होता पति तो बन के अर्धनारीश्वर परिवार पोषक,
कभी मोम, कभी कठोर, कभी मासूमियत से निर्वाह करता हूँ!
होता बाप तो फस जाता दो पीढ़ियों के संतुलन में,
कभी चुप, कभी समझाइश, कभी आंख मूंद के चलता हूँ!
होता पितामह तो बन जाता हूँ छांव बरगद की मैं,
कभी लाचार, कभी अधिकार, कभी नसीहत से बातें करता हूँ!
होता पुरुष जो इस धरा पर, के महत्व पर गौर नहीं,
खग की भाषा खग ही जाने, सब पुरुषों को समर्पित करता हूँ!
_राज सोनी-
छोटे बालक के जैसे हो
मैं नहीं जानती कैसे हो
स्वाभाव आचरण अच्छा रखते हो
अभी छोटे बालक दिखते हो
अम्मू के प्यारे हो
मां के लाज दुलारे हो
द्वेष छल कपट से पवित्र हो
प्रेम की मूरत लगते हो
छोटे बालक के जैसे हो
मैं नहीं जानती कैसे हो-
ईश्वर! मुझे निःस्वार्थ और सच्चा बना दे
यदि हो सके तो फिर मुझे बच्चा बना दे।
ये दुनिया सारी देखकर अब पक चुका हूँ,
सड़ न जाऊँ पक के, मुझे कच्चा बना दे,
यदि हो सके तो फिर मुझे बच्चा बना दे।
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बचपन के वो दिन वो सारे खेल खिलौने याद आते हैं।
आपके साथ हुई एकाध मुलाक़ातें सनम याद आते हैं।
आपके इश्क़ में जो डूब गए थे एक अरसे पहले हम।
इस रूहानी इश्क़ की बारिश की बरसातें याद आते हैं।
आपके बिना तो सोचा भी नहीं था कि जी सकेंगे हम।
कि आप तो हमको उस गली में आते जाते याद आते हैं।
जो सोचा था अपने ख़्यालों में कई दफ़ा करेंगे आपसे।
जो हो न सकी आपसे कभी वो अधूरी बातें याद आते हैं।
बस आपसे बात करते करते ही यूँही बीत जाती थी जो।
कि मोहब्बत की वो प्यारी-प्यारी हसीं रातें याद आते हैं।
आपकी रूहानी इश्क़ के शबनमी बूँदों में जो अक्सर।
भींगते थे हम, रुत-ए-इश्क़ की वो बरसातें याद आते हैं।
बचपन में पास में कुछ भी न था पर दोस्ती थी "अभि"।
दोस्त के साथ की निःस्वार्थ ख़ुशी-सौगातें याद आते हैं।-
मैं मौन तालाब हूँ,
और तुम एक जिज्ञासु बालक,
जो बार बार कंकड़ डाल कर
तरंगों को कौतूहल से देख रहा है।-
【प्रेम/मोह】
"प्रेम" एक निश्छल"
मासूम 'बालक' की भांति है।
जिससे "प्रेम" कर बैठा
उसे पाने की 'बालहठ' करता है।
'हठ' पूरी हो गयी तो
'खिलखिला' उठता है।
किन्तु ना हुई तो 'रो कर' थोड़ी देर,
फिर इस "हठ पर मूक" हो जाता है।
किन्तु "मोह" के संदर्भ में ऐसा कुछ नही है,
वो "प्रेम" से अत्यंत "भिन्न व जिद्दी" होता है।-
बालक हठी अनंत काल से चंद्र को ही पगलाए हैं।
ऐसा लगता हो मानो सगरे, चंद्रचूड़ के साए हैं।।-
प्रेम की कोई भाषा नहीं
प्रेम की कोई परिभाषा नहीं
प्रेम वो है जो दिल के भाव समझता है
मूक को भी वाचाल बना देता है
आँखों से बरबस ही बह निकलता है
प्रेम तो बस प्रेम के लिए तरसता है
करुणा का भाव जहाँ दिखे
बस वहीं जा मचलता है
आखिर प्रेम हर दिल में बसता है
आखिर प्रेम ईश्वर की दी हुई अनुपम रचना है ।-
प्यार पनपता है ऐसे!
जैसे शाला में नवागंतुक बालक,
अपने हाथों में पेंसिल पकड़ कर!
खींचता प्रथम आड़ी टेढ़ी लकीर।
नित-दिन कर फिर वो सतत प्रयास।
उकेर लेता है वो अपना पहला अक्षर।
ख़ुशी में झूमता,
तो वो कभी उसे चूमता।
मानों पा लिया सारा संसार,
पा लिया हो प्यार।-