I am a chair and have four legs
And a back but where does it go
Legs don't walk so tip tack toe-
'Take a long deep breath
And you will feel relaxed'
Murmurs in a husky tone
cloud up the ears.
Chained breasts,
the chest can not
expand, I say
'treat with respect
especially yourself'
Hell with it, I think.
A smell of an old man
living delusioned
in me, lifts a whirlpool
and I can breath.
Just to forget I couldn't.
I can't; momentarily―I live.-
September walked in
like a pegion
in my hall
it tries to make a home
twigs, leaves, bushes
of gifts of fall
But a home where I live?
I feel it, in nerves
childed with suspicion
Home, any home;
a plain intrusion.
Phew phew and flew away
came which path, go the way.
September or any other,
what meaning!
Months pass and pegions lost,
none remaining.-
मत कहो वो बात
जिससे जागती हैं तलवारें।
जानता हूँ कट के ही बस
पार जीवन का यहाँ
किन्तु फिर भी धैर्य मुझको;
धार्य मुझको स्वप्न सुंदर।
इसलिए अनबुझ बने रहने दो
हो लो दूर सारे
खुश्बुओं की लाज मारें―
अभी नहीं.. नहीं तलवारें।-
प्रिय विभावरी,
तुमको सपनों में देखा किए। कहते हैं रंगीन होते हैं सपने, बहुत सुहाने से। मेरे सपनों में अब भी बीते जगत की रील ही चलती है। रंगीन बाजे से बहुत पहले की दर्शनी लगी रहती है। देखता हूँ जब तो दोस्त देखता हूँ; असल कहूँ तो अब उनसे भी मिलना नहीं चाहता। वे मेरे दोस्त हैं, पर मिलकर ये भरम आधा हो सकता है। इसलिए नहीं कि वे दोस्त कम हो जाएंगे; इसलिए कि वे दोस्त बहुत अधिक हैं मेरे।
तुम शायद यों ही कारण लिए नहीं दिखाती होगी पूर्णिमा की चाँदी!? सपनों में तुमको देखा किए कि कुछ नहीं देखा किया। उपनिषद छलाँग लगा देता है हर बार ऐसे संवादों में―महिमामंडन अज़ीब अज़ाब है―ठीक है, मान लिया, है यह कलुष ही उत्तम प्रबंध आत्म का―जो कहो सब स्वीकार मुझे, तुम्हारा साथ जो धार्य मुझे। विडम्बना से नहीं परहेज, जग ला दो कितने चाहें, ग्राह्य मुझे सारे फरेब।-
I prefer to dream
In a world where dry air blows
And heat is loved
Inspite
I wake up to sleep
But I don't
Just dream-
रेत बहता है मुझमें
भीतर सबकुछ छिला हुआ।
कभी घुटने तो कभी आँखों तक
दिल उड़ता हुआ आ जाता है।
भाग दौड़ रोकती नियति;
कभी देखने नहीं देती
जैसी तैसी ही सही, सच्चाई।
मैं इक्कसवीं सदी का हूँ?
नहीं, उस सपने का नहीं।
कलयुग का हूँ, हाँ!
महसूस जाने क्यों होता है:
सब ओर बहुत ही उजला है..-
थोड़ा लिख लेने के बाद
उसका मन सहम जाता है
या खिल उठता है
वो नहीं जान पाता।
थोड़ा लिखने का
उसने कभी सोचा ही नहीं था।
थोड़ा कुछ भी वो कभी सोच नहीं पाया,
थोड़ा सब कुछ उसके हिस्से जबरन आया।
थोड़ा सब कुछ आया?
या थोड़ा बहुत कुछ!
सवाल जो उसे गए रोज़ सता गया था;
आज नहीं सालता।
वह ठूँठ था;
फुहारे ही सही, गिरते तो हैं।
फसल ना सही, घासें; खिलती तो हैं:
खेत को खेत
कहे जाने भर का थोड़ा
अब भी मयस्सर है।-
कुछ दूर चलने से
पास आ जाते हैं, और कई रास्ते
ग़ुम हो जाते हैं
कितने ही मनोरथों के सेतु
बँध जाते हैं हमसे
आशाओं के क्षीण बिंदु―
आभार अदा कैसे करे कोई।
मैंने चलने से पहले
चलना सोचा―बहुत बार सोचा!
यह मेरी पराजय अवश्य है..
मैं दुनिया का नहीं।
मुझे चलना था तब भी जब
मैं समझता था, चलने से
पास आ जाते हैं कई और रास्ते!-