मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
[ अटल बिहारी वाजपेयी ]
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
[ बशीर बद्र ]-
मैं ग़ज़ल की शबनमी आँख से ये दुखों के फूल चुना करूँ
मिरी सल्तनत मिरा फ़न रहे मुझे ताज-ओ-तख़्त ख़ुदा न दे
-बशीर बद्र-
महबूब का घर हो कि बुजुर्गों की ज़मीनें
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा
#बशीर_बद्र-
दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है
जो भी गुज़रा है उसने लूटा है।
【बशीर बद्र】-
इन लफ़्ज़ों की चादर को सरकाओ तो देखोगे ,
एहसास के घुँघट में शर्माई हुई ग़ज़लें..
तारों भरी पलकों की बरसाई हुई ग़ज़लें ,
है कौन पिरोए जो बिखराई हुई ग़ज़लें..
ये फूल हैं या शे'रों ने सूरतें पाई हैं ,
शाख़ें हैं कि शबनम में नहलाई हुई ग़ज़लें..
ख़ुद अपनी ही आहट पर चौंके हूँ हिरन जैसे ,
यूँ राह में मिलती हैं घबराई हुई ग़ज़लें..
- बशीर बद्र-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में...
(अनुशीर्षक में पढ़ें)
-बशीर बद्र-
इक ये ख़्वाब भी अधूरा ही रह गया है
उसके साथ बारिश में भीगना बाकी रह गया है-