अब तो चारदिवारी भी पूछती है।
किसके लिऐ तू रोज बदल जाती है।
और मैं कहती हूँ, औरत ऐसी ही होती है!
जरूरत के हिसाब से किरदार निभाती है!-
साल तो हर 12 महीनों 365 दिनो में बदल ही जाते हैं
इस बार कुछ अलग करते हैं साल के साथ खुद को भी बदलते हैं ।-
जागते रहना है, पढ़ते रहना है,
पिताजी की फ़िक्र को फक्र में जो बदलना है।-
हम वफादारी निभाते रहें और कोई अपना दुनियादारी निभाता जिंदगी के मायने बदल गया।
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जिस शाख़ ने सुकूँ-बख़्श ख़ूबसूरत पल दिये
सूखे पत्ते भी... निकले एहसान-फ़रामोश
...हवा के साथ चल दिये
क्या कहें उन संगदिलों से
मोसमें-बहार में जो आये थे
आयी पतझड़ ए शज़र...
उन परिंदों ने भी ठिकाने बदल लिये..!-
ये आती जाती ऋतुएं ही
करती हैं वसुधा का श्रृंगार,
कभी पुष्प कुसुम भर देती हैं
कभी लेती हैं सब पर्ण झाड़...
फिर पख पखवाड़ों का सिलसिला
और मौसमों का बदलना
मन को भी ढाल लेते हैं
अपने रंगों रूप अनुसार।।-
जाने कितनी रातों से सुकून न मिला दर्दे दिल को
अब डर सा लगता है कहीं खुद को बदलना न पड़े....😫-
पानी पर चलना सीख रहा हूँ
मैं रंग बदलना सीख रहा हूँ
"आग" तो यूँ ही कहते हैं लोग
अभी तो जलना सीख रहा हूँ-
हो चाहे दुख की आंधी
या हो खुशियों की बहार
हर वक़्त एक जैसा नही रहता।
सृष्टि का यही नियम है परिवर्तन
वक़्त और हालात के साथ
और कभी कभी खुद को भी
पड़ता है बदलना।
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