शाम जो तेरे पहलू में ढलती है
फिर रात-दिन तुझसे मिलने को तरसती है
फिजाएं भी तुझे देखकर रंग बदलती हैं
छोड़ अपना रंग वो तेरे रंग में रंगती हैं
जो हवाएं तुझे छू कर गुजरती हैं
तेरी मोहब्बत के लिए वो भी तरसती हैं
ये घटाएं भी तुझसे मिलने को बरसती हैं
हुस्न तेरा देख गिरती हैं संभलती हैं
शमां जो तेरे कमरे में जलती है
तेरे ही इश्क़ में सारी रात पिघलती है
शाम जो तेरे पहलू में ढलती है
फिर रात-दिन तुझसे मिलने को तरसती है
- डोभाल गिरीश
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लोग अपने पहलू छुपा लेते है इस कदर,
जैसे दामन में उनके कभी दाग़ ही ना थे।-
ज़िन्दगी के हर रंग से
वाकिफ हूँ मैं
बहुत करीब से देखा है
ज़िन्दगी के हर पहलू को
जाने कब कैसा वक़्त
आ जाए कोई नही जानता
एक पल में खुशी एक पल में दुख
यही है ज़िन्दगी का जीवन चक्र
मैंने ज़िन्दगी के सफर को देखा
नही महसूस किया है।।।-
कुछ इस अदा से आकर बैठे मेरे 'पहलू' में वो
जैसे मैं मुर्दा कोई जिस्म और मेरी साँसे हो वो
- साकेत गर्ग 'सागा'-
ये अमीरी-ग़रीबी की कहानी
मुझे भी समझ आ गई
वो जो पहलू में बैठी रही 'अमीरी' आ गई
वो जो उठी, जो चली, तो 'ग़रीबी' छा गई
- साकेत गर्ग-
ग़रीबी अभिशाप है कहा करते हैं सब लेकिन,
क्यों है इसका इक और पहलू देखा ,
जब राह चलते भीख मांगती औरत पर भी,
हमने बुरी नीयत को मचलते देखा !-
के अब कहाँ जाऊँगा तेरे 'पहलू' से जो उठ जाऊँगा
ज़िंदगी यहाँ, सुकूँ यहाँ, कहीं और मैं कैसे जी पाऊँगा
- साकेत गर्ग 'सागा'-
आपके पहलू में
बेचैनी बढ़ने लगी
एक नयी कविता , रात्रि गढ़ने लगी ।
नैना बोझिल हुए
रैना उतरने लगी
तन में लगी अगन , मन में सजने लगी ।
सिंगार बिखरता हुआ
काया निखरने लगी
तीक्ष्ण-इत्र-महक , कोमल पड़ने लगी ।
देह सुन्न पड़ी
स्पंद बढ़ने लगी
तीव्र-कोष्ण-श्वासें , कण्ठ सोखने लगी ।
स्पर्श सिमटता हुआ
स्नेहता बढ़ने लगी
गंध तेरे तन की , प्रेम बनने लगी ।
चंद्र मद्धम हुआ
किरणें छनने लगी
हर पुरानी वस्तु , नयी लगने लगी ।
प्रेम संवरता हुआ
प्रतीक्षा फलने लगी
प्रीत जीवन का, अमृत लगने लगी ।
- प्रज्ञा प्रांजली
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ये जो थमा थमा हुआ सा कुछ अंदर हैं मेरे...
वक्त की कोई जकड़न हैं या
मैं खुद खो गयी हूँ, इन वक्त के पहलुओं में कहीं..।।
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