कांच के बाहर की परत
मुझ जैसी है।
बूंद जैसी तुम
छूकर गुजरती रहती हो।
न तुम रुकती हो,
न मेरा मन भरता है।-
तुमने हुस्न पर इश्क की परत चढ़ते देखा है,
हमने झुर्रियों में भी इश्क की बुलंदियाँ देखी हैं !-
ज़िंदगी है
धूप -छांव
तो होगी ही
रंग बदलती है
हर पल
अपनों की तरहां
ज़िंदगी भी
कभी वक़्त के साथ
कभी बहुत देर से
मगर...🤔😔
मन पर
निशां छोड़ जाती है ये परतें... बहुत ही गहरें...
"हयाती"🍂🍁🍂🌼-
कभी भरते नहीं, उसपर
समय की परत जम जाती है
गर, कभी कुरेदा
जख्म फिर उभर आती है
पीड़ा और भी बढ़ जाती है
इंसान को अंदर ही अंदर को खाए जाती है
लगा नहीं सकते मरहम
बहुत गहरे होते हैं
अंतर्मन के जख्म...-
हौले-हौले जिन्दगी पर,
इक परत चढ़ रही है ।
किस्मत नये सिरे से,
कोई कहानी गढ़ रही है ।
दोनों ही अंजान है,
नये जमाने के दौर से ।
मैं उसको पढ़ रहा हूँ,
वो मुझको पढ़ रही है ।।-
फिर परतों पे परत
और परतों पे परत
परत दर परत.....
वो सबसे उपरी
परतों को ही
अपना वजूद
मान बैठी.........।-
कुछ जवाब ही छोड़ जाते जाने से पहले
तेरी यादों पर सवालों की परत जमी है-
रिश्तों की परतों के बीच में एक पाती छिपी होती है
चुराकर पढ़ लेना कभी जो दिल हकीकत ना माने।
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मेरी देह पर अपनी देह की परत चढ़ाती है।
मन में आकर तन की ज्वाला बढ़ाती है।
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