# "बहुत दिनों से नींद नहीं आ रही है रातों में,
क्या उसकी सोच तक से जा चुका हूँ मैं...?"¥❣️-
जब आप किसी और पर जरूरत से ज्यादा निर्भर करने लगते हैं तब आप अपनी भी क्षमताएँ खो देते हैं!
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मैं जंगल में उगी वो हरी पत्तियाँ हूँ
जहां धूप की किरणें नहीं पहुँचती
तुम्हारी शादाब बेलों पर पड़े
धूप के छींटों से जी लेती हूँ मैं
स्त्री हूँ मैं....-
निर्भरता ना सिर्फ़ हमें कमज़ोर करती है
बल्कि हमारी सामर्थ और
हमारी कबिलियत से भी हमें दूर कर देती है-
स्वतंत्र बाबा@दर्शन सूत्र
संन्यस्त का अर्थ यह नहीं है कि आप प्रेम न करोगे। प्रेम तुम्हारा दान होगा, तुम्हारी निर्भरता नहीं। तुम दे सकते हो,लेकिन यह एक अपेक्षा रहित मुक्त दान है। आप इसके बदले में भी कुछ नहीं मांग सकते। तुम दोगे, क्योंकि देना तुम्हारी खुशी है।दान तुम्हारा व्यक्तिगत विषय है।।एहसान नही।।जैसे पेड़ की छाँव व् सुस्वादु फल।।
जब दो व्यक्ति एक-दूसरे को प्रेम दे पाते हैं, तब देना सिर्फ खुशी होती है।किसी तरह की कोई प्रति इच्छा नही।।आत्मोत्सर्ग तक सिर्फ दान।। तब, शायद राम और सीता जैसा प्रेम कभी राधाकृष्ण, जैसा..प्रेम प्रकट होता है।। अतः हम इन राधाकृष्ण, गौरीशंकर या सीताराम को अलग-अलग याद नहीं करते हैं। इनको अलग-अलग याद करना ठीक भी नहीं है। ये अलग-अलग रहे ही नहीं। ये एक ही थे।।एक दुसरे के पूरक।।प्रेम कालजयी घटना है।।घट गयी तो घट गयी।।
सिद्धार्थ मिश्र-
हां अकेले भी काट लेते हैं सफ़र वो लोग
जिंदगी का जहां बात फिजूल की नही अपने उसूल की हो ✍️-
निर्भरता जीवन में कुछ इस तरह अड्डा जमा देती है
जिंदा रहने के लिये हाथ पकड़ कर चलना सीखा देती है
नवजात शिशु को माँ के दूध पर
बच्चे को माँ बाप पर
पति को पत्नी पर और
पत्नी को घरवालों पर
सीधा और उल्टा दोनों तरफ़ यह पहिया चलता है
इंसान को परिवार,फिर समाज से जोड़ देता है
फिर प्रेम और भावनाओं के समंदर बनते चले जाते हैं
इंसान अकेला कमज़ोर था या अब है ,समझ नहीं पाते हैं
शरीर तो निर्भर होता ही है साथ विचार और राय भी हो जाते हैं
परंतु क्या करें जिंदगी यही है सांसों पर भी हम निर्भर हो जाते हैं
फिर कैसी मर्ज़ी और आज़ादी कैसी
जो हम खुले आसमान के नीचे स्वतंत्रा दिवस मनाते हैं
क्या होता अगर पूरे धरा पर अकेला कोई मनुष्य होता
सोच कर भी मन घबराता ,मेरा दिल दहल उठता
समझ यह नहीं आता की जब हर कोई एक दूजे पर निर्भर है
कैसे कोई हुकुम चलाये ,हक जताये अपना कहते ,हमसफ़र है
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इन उजालों का वजूद
अंधेरों ने सम्हाल रखा है
दिन भी थककर रात के आगोश में सो लेता है
चांदनी रातों के किस्से भी
मशहूर कहां होते
गर अमावस की रातों ने
पहरे न दिये होते
उजालों की चमक न
पडें फीकी
अंधेरों ने खुद को
जलाया है
जीभरकर
प्रीति.-