Preeti Karn   (अनकही. ..)
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Joined 27 February 2017


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16 HOURS AGO



उमड़ती इन घटाओं को बरसने की न आदत है।
हवाएं ले उड़ा जाती बहकने की नज़ाकत है।
नहीं मालूम है इनको जरूरत की कमी होना,
चलन ये आज का थोड़े पुरानी सी कहावत है।


प्रीति

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7 JUL AT 14:02



अलोपित शब्द हैं सारे कहां से गीतिका होगी।
अकिंचन भाव के मारे अ सुंदर वीथिका होगी।
रिझाने से नहीं आते कभी भी बंध गीतों के,
सधे जब साधना के पथ प्रदर्शक दीपिका होगी।


प्रीति

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2 JUL AT 20:34

सार्ध्य मनोरम छंद
2122 2122 2122


दीप का है काम बस करना उजाला।
रात के घर इस तरह रखना उजाला।
जब अँधेरे घेर लेते हर तरफ से
नेह की सौगात में भरना उजाला।


प्रीति

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17 JUN AT 18:11


छंद :  मणिमाल
(11212  11212 11212 1121)

मन तू  नहीं  अब मानता किस ओर का ठहराव । 
चलने लगी  पुरवा हवा  दिखने लगा   बिखराव। 
ढलती हुई इस सांझ के  बदले हुए  सब रंग, 
खिलने लगी फिर चांदनी  उलझा  रहा भटकाव।

प्रीति

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16 JUN AT 20:38


हम करुणा  से भरे 
हारे हुए लोग हैं। 
लाख कोशिशों की अवहेलना कर 
स्वयं  के लिए सहेज लेते हैं आघात। 
तरल मन की सरलता में
नहीं समझ पाते 
जीवन के
दांव पेंच की उलझनेंं। 
एक पल में गंवा देते हैं
बची खुची खुशी 
रहा सहा धैर्य 
और बहुत सारा 
विश्वास। 

प्रीति

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9 JUN AT 11:06


न तुम कुछ कहो और हम भी न बोलें।
न तुम राज खोलो न हम राज खोलें।
न आसान से इस बमुश्किल सफर में,
चलो चुप्पियों की वजह को टटोलें।

प्रीति

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7 JUN AT 21:46



तरु शिखा पर टिकी  सज संँवर चांदनी। 

साथ चलती रही हमसफ़र चांदनी। 

शुभ्रवर्णा  परिष्कृत हुई और भी

रूपसी  दंभ भरती निखर चांदनी। 

प्रीति

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5 JUN AT 10:13



जब कोई नहीं था हवा थी!
जहाँ कोई नहीं था धरा थी!
कुछ फूल कुछ पत्ते कोई नदी कोई प्रपात
किसी अरण्य किसी उपत्यकाओं से
रीझती रही आत्मा।
अनिर्वचनीय सुख के लिए
करने होंगे जतन
ताकि बचे रहें पहाड़ झरने नदियाँ और
सघन वन🌿🕊💚

प्रीति







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31 MAY AT 10:58



मुक्तक:

ताप संताप से मुक्त है अब धरा । 
बूंद बारिश हवा कर रही पल  हरा। 
धूप  करने लगी आज अठखेलियाँ-
ऋतु लगी मोहने मन हुआ बावरा।

प्रीति

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31 MAY AT 10:52

मुक्तक:
स्रींग्विनी छंद
मापनी: २१२ २१२ २१२ २१२

मोहती मन रही रात भर चांदनी। 
बिछ गयी देहरी पर उतर चांदनी। 
एक पल एक क्षण भर न ओझल हुई- 
मौन भरती रही यूंँ ठहर चांदनी। 


प्रीति



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