Preeti Karn   (अनकही. ..)
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Joined 27 February 2017


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9 HOURS AGO


फिर उग आना भोर सबेरे 

पीपल की कोमल फुनगी पर। 

सिंदूरी आभा का उत्सव

घिरे द्वार  आँगन  तुलसी पर। 


तृण पत्ते  और फूल लताएं

जाग उठेंगे जीवन पाकर 

फिर उग आना भोर सबेरे 

दिवस लिए तुम नित्य दिवाकर। 

प्रीति

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21 HOURS AGO



अवसाद न तोड़े मन कोई
उत्कर्ष न राग बढ़ा पाये।
सब आते जाते जीवन पल
है क्षणिक बोध मन भरमाये।

प्रीति

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24 APR AT 21:35




क्यों डराती है सतत संभावनाएं 

ज्ञात जब मुझको नहीं भवितव्य मेरा। 

तय सुनिश्चित कर्मफल के  भोग बंधन

नियत है दुख और सुख का  सत्य घेरा। 

प्रीति

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8 MAR AT 17:23



अभिव्यक्ति को पोषित करने वाले 

शब्दों का  सदैव ऋणी   जीवन।

वैकल्पिक ठौर की तलाश में

जहाँ पा लेते हैं इच्छित 

अर्द्धविराम। 

वहीं

सहिष्णु पीड़ाएं नहीं रोक पातीं

स्वयं को कविता होने से  ! 

प्रीति


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6 MAR AT 16:13



मुझसे मिलने वाले लोग

 मुझे  सच में जानते हैं या नहीं 

पर चेहरे से पहचान रखते हैं। 

मैं भी सही सही नहीं जानती हूँ 

उन सभी लोगों को जिनसे लगातार 

बार बार मिलने का अवसर मिला। 

फिर एक दूसरे को इस तरह जानते 

एक उम्र गुजरी। 

कहने को बस इतना  भर है  कि 

हम परिचित हैं।

प्रीति

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3 MAR AT 17:58




ठहरता कौन है आकर यहाँ पर,
समय की सांझ अब ढलने लगी है।
बदलते रंग सारे देखते हैं,
सुबह होती मगर लगती नहीं है।

प्रीति

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1 MAR AT 18:14



विगत में उलझा हुआ मन काश आगत देख पाता

क्षणिक जीवन बोध में   संकल्प नव विस्तार पाता 


थक गए हैं पांव इतने कोस चलकर

मन वहीं पर आज तक ठहरा हुआ है। 

बह रही चुपचाप सी  संकरी  नदी में

भाव प्रण अब और कुछ गहरा हुआ है। 

टूटती बनती बिगड़ती जल तरंगें

क्यों न इनसे धीरता का भाव आता।


प्रीति

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28 FEB AT 19:17




दुर्निवार परिस्थितियों में  घिरा

मन

फेर लेता है उस ओर अपनी पीठ। 

असहज होने से अच्छा है राह बदल लेना। 

उसे ज्ञात है अवमानना की  पीड़ा 

उपेक्षित  जीने की विषमता का दंश। 

प्रीति

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17 FEB AT 20:03

मुझे नहीं पता शीत की रातों में

क्यों झरती है ओस

अगहन के छोटे होते दिन  में

क्यों 

आंखमिचौली खेलती है धूप

और पूस की लम्बी रातों में नींद के लिए 

कहाँ से 

बचा रहता है निश्छल एकांत। 



नदी की थिर सतह पर हवाएं 

लिख लिख मिटाती हैं अपने नाम

अनाम हवाएं तोड़ देती हैं लहरों के अर्द्ध वृत्त



उन सवालों की फेहरिस्त में

जुड़ जाते हैं रोज कई सवाल

जिसके उत्तर की खोज में 

खर्च हो  जाता है दुर्लभ जीवन। 
प्रीति

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12 FEB AT 14:51

कल तक उस ओर एक दृष्टि भी नहीं फेरता था कोई। समस्त पसरे हरियल वन में चहुंओर हरे के सिवा कुछ भी नहीं था विलग जिस पर ठहर सके मन। एकरसता नवीनता नहीं औत्सुक्य नहीं किंतु समय के प्रवाह में बदलती ऋतुओं का मोहक प्रभाव अनायास ही अपनी ओर खींच लेता है मन।
यह बसंत की प्रभा है जहाँ एकाकी सेमल रक्तिम पुष्ट फूलों से संवर गये हैं। सहज ही दृष्टि में बदलाव की स्वीकृति से अवाक् है शाल्मलि।

प्रीति

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