माधव मालती छंद
2122 2122 2122 2122
मौन की आराधना में बीतते हैं चार मौसम।
पीर की गंभीरता में हो गये हैं खार मौसम।
अनकही सारी कहानी कह रही संवेदनाएं,
गीत की मध्यस्थता करने लगी व्यापार मौसम।
प्रीति
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Exploring my literary skills.
लिबास ए रंग की सा... read more
रात के चंद्रमा तुम ठहरना जरा।
नींद के घर खुले धीर धरना जरा।
स्वपनपाखी अभी थोड़े नादान हैं
पंँख में थोड़ी सी जान भरना जरा।
प्रीति-
रंग आसमां भी बदल लेता था,
शाम के वक्त सब बिछड़ जाते।
यही सिलसिला है सदियों से।
प्रीति कर्ण-
उमड़ती इन घटाओं को बरसने की न आदत है।
हवाएं ले उड़ा जाती बहकने की नज़ाकत है।
नहीं मालूम है इनको जरूरत की कमी होना,
चलन ये आज का थोड़े पुरानी सी कहावत है।
प्रीति-
अलोपित शब्द हैं सारे कहां से गीतिका होगी।
अकिंचन भाव के मारे अ सुंदर वीथिका होगी।
रिझाने से नहीं आते कभी भी बंध गीतों के,
सधे जब साधना के पथ प्रदर्शक दीपिका होगी।
प्रीति-
सार्ध्य मनोरम छंद
2122 2122 2122
दीप का है काम बस करना उजाला।
रात के घर इस तरह रखना उजाला।
जब अँधेरे घेर लेते हर तरफ से
नेह की सौगात में भरना उजाला।
प्रीति
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छंद : मणिमाल
(11212 11212 11212 1121)
मन तू नहीं अब मानता किस ओर का ठहराव ।
चलने लगी पुरवा हवा दिखने लगा बिखराव।
ढलती हुई इस सांझ के बदले हुए सब रंग,
खिलने लगी फिर चांदनी उलझा रहा भटकाव।
प्रीति
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हम करुणा से भरे
हारे हुए लोग हैं।
लाख कोशिशों की अवहेलना कर
स्वयं के लिए सहेज लेते हैं आघात।
तरल मन की सरलता में
नहीं समझ पाते
जीवन के
दांव पेंच की उलझनेंं।
एक पल में गंवा देते हैं
बची खुची खुशी
रहा सहा धैर्य
और बहुत सारा
विश्वास।
प्रीति-
न तुम कुछ कहो और हम भी न बोलें।
न तुम राज खोलो न हम राज खोलें।
न आसान से इस बमुश्किल सफर में,
चलो चुप्पियों की वजह को टटोलें।
प्रीति-
तरु शिखा पर टिकी सज संँवर चांदनी।
साथ चलती रही हमसफ़र चांदनी।
शुभ्रवर्णा परिष्कृत हुई और भी
रूपसी दंभ भरती निखर चांदनी।
प्रीति-