हम करुणा से भरे
हारे हुए लोग हैं।
लाख कोशिशों की अवहेलना कर
स्वयं के लिए सहेज लेते हैं आघात।
तरल मन की सरलता में
नहीं समझ पाते
जीवन के
दांव पेंच की उलझनेंं।
एक पल में गंवा देते हैं
बची खुची खुशी
रहा सहा धैर्य
और बहुत सारा
विश्वास।
प्रीति-
Exploring my literary skills.
लिबास ए रंग की सा... read more
न तुम कुछ कहो और हम भी न बोलें।
न तुम राज खोलो न हम राज खोलें।
न आसान से इस बमुश्किल सफर में,
चलो चुप्पियों की वजह को टटोलें।
प्रीति-
तरु शिखा पर टिकी सज संँवर चांदनी।
साथ चलती रही हमसफ़र चांदनी।
शुभ्रवर्णा परिष्कृत हुई और भी
रूपसी दंभ भरती निखर चांदनी।
प्रीति-
जब कोई नहीं था हवा थी!
जहाँ कोई नहीं था धरा थी!
कुछ फूल कुछ पत्ते कोई नदी कोई प्रपात
किसी अरण्य किसी उपत्यकाओं से
रीझती रही आत्मा।
अनिर्वचनीय सुख के लिए
करने होंगे जतन
ताकि बचे रहें पहाड़ झरने नदियाँ और
सघन वन🌿🕊💚
प्रीति
-
मुक्तक:
ताप संताप से मुक्त है अब धरा ।
बूंद बारिश हवा कर रही पल हरा।
धूप करने लगी आज अठखेलियाँ-
ऋतु लगी मोहने मन हुआ बावरा।
प्रीति
-
मुक्तक:
स्रींग्विनी छंद
मापनी: २१२ २१२ २१२ २१२
मोहती मन रही रात भर चांदनी।
बिछ गयी देहरी पर उतर चांदनी।
एक पल एक क्षण भर न ओझल हुई-
मौन भरती रही यूंँ ठहर चांदनी।
प्रीति
-
अहो तु मातु शारदे यस्शिविनी समुज्ज्वला।
शाश्वती निरंजना अखर्व सर्व मंगला।
मुझे सतत प्रमाद से उबार तार ज्ञान दे
प्रार्थना उपासना से शब्द का विधान दे।
तमिस्र बंध काट सब सुबुद्धि का उजास भर।
प्रखर पुनीत चेतना प्रभाव का प्रकाश भर।
अनन्य स्नेह उर्वरा उसारती वसुंधरा
बसंत लय सुवास सम सुदीर्घ सा वितान दे।
प्रार्थना उपासना से शब्द का विधान दे।
बुद्धि में कुशाग्रता सशक्त लेखनी रहे।
सुभाष्य बंध छंद में विशुद्ध वर्तनी रहे।
शुभ्रता विमोहती सदैव हंसवाहिनी
मृदुल सरस सुभाव कंठ श्वास श्वास भान दे।
प्रार्थना उपासना से शब्द का विधान दे।
प्रीति कर्ण
-
हाईकु
1.
खिली धूप है
दिन के आँगन में
रातें सर्द सी।
2.
जीवन गीत
हरे पत्तों के बीच
सुनती हवा।
3.
शोर थमता है
पतझड़ के आते
यही रीत है।
4.
चांदनी रात
टिमटिमाते तारे
संग चलते।
प्रीति
-
वही राग है वही गंध भी
वही रश्मियाँ उतरी धरा।
वही धूप है वही धुंध भी
वही शीत का है आसरा
बदले हुए नव वर्ष में
कुछ अंक जुड़ते जा रहे
अनुभूति के सब खेल हैं चिंतन मनन कर लें जरा।
प्रीति-
बीतते वक्त के साथ
गहरता है अधूरे रह जाने का अकथ्य भाव।
वह सब जिसे कहा जा सकता है सामान्य तरीके से
उसे विशिष्ट बनाने के क्रम में
ढूंढते रह जाते हैं शब्द।
हमारी अक्षमता भीतर भीतर
अप्राकट्य के बोझ तले दबी दबी
रहने लगती है निरंतर उदास।
प्रीति-