अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहां के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं
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नींद और निदा पर जो विजय पा लेते है,
उन्हें आगे बढ़ने से कोई नही रोक सकता..!!-
निदा फ़ाज़ली -
बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता,
जो बीत गया हैं वो गुज़र क्यों नहीं जाता,
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में,
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता..।।
जॉन साहब कहते है -
यूं जो तकता है आसमां को तु,
कोई रहता है आसमां में क्या,
ये मुझे चैन क्यू नहीं पड़ता,
एक ही शख्स था इस जहां में क्या...।।-
रोज दुआओं में जिससे वो लाखों माँगता हैं,
उसी को दान देने को वो जेब में सिक्के तलाशता हैं।
जो निकला हैं अभी सेमिनार से भाषण देकर तंदुरुस्ती और सेहत पर,
वो चंद कदम दूर जाने को रिक्शे तलाशता हैं।
जिसने कभी भूल से भी देखा न अपनों के तरफ,
वो आज अपने बुरे समय में बिसरे हुए रिश्ते तलाशता हैं।
वो गरीब हैं साहब, बमुश्किल उसकी जरूरतें पूरी होतीं हैं,
इसलिए वो सामान अच्छे नहीं सस्ते तलाशता हैं।
वो शख्स जो रहनुमा हुआ करता था कभी काफिले का,
ख़ुद अपनी मंजिल पाने को आज़ रस्ते तलाशता है।
ऐसी भी क्या जरूरत आन पड़ी तुमसे उसे 'कुमार',
कि ठुकराये हुए शख्स से मिलने को वो वज़हें तलाशता हैं।-
या रब ये कैसी आसमाँ से निदा है आई,,,
कि चारों तरफ वबा वबा ही है छाई...-
न मैं तलाश करूँ तुममें जो नहीं हो तुम,
न तुम तलाश करो मुझमें जो नहीं हूँ मैं...-
बहुत ख़ूबसूरत है आँखें तुम्हारी
बना दीजिए इनको क़िस्मत हमारी
उसे और क्या चाहिए ज़िंदगी में
जिसे मिल गयी है मोहब्बत तुम्हारी
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मोहब्बत तुमसे करता हूं गुनाह तो नहीं
हाँ ज़रा सी है मगर बे पनाह तो नहीं-
वह गई नहीं कभी इस दिल से जुदा होकर
लब ए ख़ामोशी में वह आई है निदा होकर-
किसी खास अदा से इश्क -ए-इजहार करके तो देख,
निदा -ए-दिल न बन जाऊ तो कहना!-