"लेकिन पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वहीं पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा ।
वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया इन्हीं आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है और यह स्त्रियों के गुण हैं। अगर स्त्री इतना समझ ले, तो फिर दोनों का जीवन सुखी हो जाए।
स्त्री पशु के साथ पशु हो जाती है, तभी दोनों जने दुःखी होते है....।।
उपन्यास - कर्मभूमि
( मुंशी प्रेमचंद जी )
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शब्दों को अधरों पर रखकर........
मन का भेद न खोलो.......
मैं आँखों से सुन सकती हूँ .....
तुम आँखों से बोलो.....
जब जब हृदय मथा है मैंने .......
तब तक अधर लगे कुछ कहने......
जब जब अधर सीए हैं मैंने......
तब तब नयन लगे हैं बहने .......
मत बहने दो नयनों को .......
आँसू हैं सिंगार हृदय का.....
हृदय में ही रहने दो.......
-आशुतोष राणा-
दिल चाहता है एक किताब लिखूं
जिसका शीर्षक "मर्द" हो ...!!
मैं उसका "सब्र "भी लिखूं और "दर्द" भी लिखूं ...!!
मै उसकी "आह" भी लिखूं और उसके व्यक्तित्व पर उठते हुए वो सभी "अल्फाज" भी लिखूं,
जिन्हे सुनकर वो किसी के सामने रो भी नहीं सकता ..!! जिम्मेदारियों के आगे अपनी पसन्द अपनी खुशियों का त्याग लिखूं...
सोच रहा हूं एक किताब लिखूं... जो उठाते है मर्द पर। उंगलियां उन का जवाब लिखूं....-
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई ,
मेरे दुख की दवा करे कोई,
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या ,
कुछ कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई,
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद,
किस की हाजत रवा करे कोई,
जब तवक़्क़ो' ही उठ गई 'ग़ालिब' ,,
क्यूँ किसी का गिला करे कोई...!!🌹🌹🌹-
"वो बाप होता है"
बिना आंसू और आवाज़ के जो रोता है वो बाप होता है ,
जो अपने बच्चो की तकलीफों के छेदों को अपनी बनयान में पहन लेता है वो बाप होता है,
घर में सबके लिए जूते आते है, इसके लिए बाप के तलवे घिस जाते है,
जो अपनी आखों में दूसरो के सपने संजोता है, वो बाप होता है...
ये सच है कि 9 महीने पालती है माँ हमे पेट मे,
ओर 9 महीने दिमाग मे जो ढोता है वो बाप होता है।।
# परितोष त्रिपाठी
@Happy father's day-
कोई अधूरा पूरा नहीं होता
कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते
परंतु इस असमाप्त -
अधूरे से भरे जीवन को पूरा माना जाए,
अधूरा नहीं कि जीवन को भरपूर जिया गया
इस भरपूर जीवन में मृत्यु के ठीक पहले भी
मैं एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए।।-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में ,
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में ,
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में ,
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है उस के आशियाने में ,
दूसरी कोई लड़की ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है उस को भूल जाने में ।।
#बसीर बद्र-
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर ,
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन ,
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता ,
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता ...।।
🌹 जॉन एलिया🌹
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ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते,
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते,
अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं,
मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते,
कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं,
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते,
शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा,
नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते,
कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में,
कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते,
उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी,
पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते,
सब ख़्वाहिशें पूरी हों 'फ़राज़' ऐसा नहीं है,
जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते...।।-
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है,
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है ।।
उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है ।।
नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए ,
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है ।।
थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें ,
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है ।।
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता,
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है ।।
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का ,
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है।।
मिरे होंटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो ,
कि इस के बा'द भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है ।।
# वसीम बरेलवी❣️-