निंदा-रस (लघु कथा)
आलोचकों की एक बस्ती थी,जहाँ के लोग एक दूसरे की आलोचना और बुराई करते रहते थे।जिसको जितनी आलोचना करने में महारत हासिल ,वहाँ उसे उतना ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। निंदा-रस की वहाँ गंगा बहती थी। यदि किसी दिन किसी को निंदा करने का सौभाग्य नहीं मिलता, वह दिन उसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण होता।बस्ती के लोग मस्त और व्यस्त थे ,उन्हें कुछ और करने या सोचने का समय ही नहीं था।
संयोग से एक दिव्यांग उस बस्ती में पहुंचा ,जिसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, मगर उसके कान तेज थे। उसे वहाँ के वातावरण में अजीब मस्ती के स्वर सुनाई पड़ रहे थे, लोग चटखारे लेकर अपने और परायों का निंदा करने और बुराई बतियाने में मशगुल थे उसे सब खुश और प्रसन्न बातों से लग रहे थे।
दिव्यांग से रहा नहीं गया, गाँव के मुखिया के पास गयाऔर उसने कहा - "मुझे यहाँ का चलन अजीब लग रहा।सब कोई एक दूसरे की निंदा और बुराई करते हैं "
"हाँ ।बस्ती का दस्तुर है कोई किसी के पीठ पीछे निंदा कर सकता है,मगर सामने उसे चिकनी-चुपड़ी बातें करने
की शर्त है।"
"वाह.!"
"हाँ, यदि कोई किसी को बता दे कि उसकी निंदा हो रही थी तो भी उसे बुरा नहीं लगता ।" मुखिया ने दिव्यांग को समझाते हुए कहा ।
"क्यों?"
"क्योंकि यह निंदा करने वालों की बस्ती है। काश ! भगवान ने तुम्हारी आँखें नहीं छिनी होती तो देखते कि यहाँ के लोग निंदा करके कितने . ..।"
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