“जिंदगी" और "मैं" एक शाम, एक मयख़ाने में मिल गए
एक दूसरे को वहाँ देख, थोड़ा हैरान हुए थोड़ा सा हिल गए।
मैं थोड़ा सुरूर में था, अपने ही ग़ुरूर में था।
वो थोड़ा बाद में आई थी, अपने लिए एक हार्ड ड्रिंक मंगवाई थी।
मैंने पूछा "गम" या "खुशी", इस बात पे वो हंसी।
कहने लगी तुम अपनी सुनाओ, पेग पे पेग कोई कोई राज़ है तो बताओ।
मैंने कहा अपना हिसाब साफ है, शाम होते होते तुम्हारे सब गुनाह माफ है।
जब आया था यहाँ तो दर्द में पी रहा था, चार जाम तक अपने गम सी रहा था।
अब खुशी में झूम रहा हूं, खुशी समझ जाम को चूम रहा हूं।
वो कहने लगी क्या लगता है तुम्हे, तुम उदास हो, और मैं हंसती हूं,
तुम रो रहे हो किसी बात पर, और मैं खुशी से चहकती हूँ।
मेरा हर लम्हा तुम्हारे साथ साथ चलता है
तुम्हारी खुशी में हंसी और गम में दिल जलता है।
वो बड़ी बड़ी बातें करने लगी थी
मैं समझ गया उसे भी चढ़ने लगी थी।
किसी बात की भी ख़िलाफ़त करना वाजिब ना था
ये ही तो वो जिंदगी थी जो मैं जी रहा था।
उसकी साफ़गोई मुझे भा गयी थी, एक बात समझ मे आ गयी थी
जो खुद इतनी हैरान है, क्या उम्मीद रखूं उससे
ये जिंदगी तो, मुझ से ज्यादा परेशान है।।।-
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कौन हूँ मैं ????
इस सवाल की आवाज़ हूँ मैं
या फिर ये विचार हूँ मैं,
आत्मा हूँ, मन हूँ, या देह हूँ मैं
प्रेम हूँ, आवेश हूँ, दुख हूँ या भय हूँ मैं,
कौन हूँ मैं ???
शिराओं में बहता रक्त हूँ मैं
या ह्रदय का संकुचन प्रसार हूँ मैं,
क्षण क्षण आती श्वास हूँ मैं
या पुतलियों में सिमटा संसार हूँ मैं,
कौन हूँ मैं ??
वायु हूँ, नभ हूँ, धरती हूँ
जल हूँ या अंगार हूँ मैं,
ये लिखने वाला हाथ,
या सोचने वाला दिमाग हूँ मैं,
कौन हूँ मैं ?
परमात्मा का कोई सवाल हूँ मैं
या उसी का दिया जवाब हूँ मैं,
कौन हूँ मैं, ये मेरा सवाल है
या इसी सवाल का सवाल हूँ मैं..-
तुमने देखा है कभी
गाड़ी के शीशों पर बारिश की छोटी छोटी बूंदों को
जब बूंदों को गौर से देखो
तो बाहरी दुनियां धुंधली हो जाती हैं,
बाहर ध्यान लगा लो
तो बूंदे धुंधला जाती हैं,
ठीक यही मेरे मन और आँखों का हाल है..
जब आँखे दिमाग की सुनती है
तुम धुंधली नज़र आती हो
फिर कभी जब उनका जुड़ाव हृदय से होता है
तो सारी दुनियां सिवाय तुम्हारे धुंधला जाती है,
मेरी एक और दूसरी सांस के बीच जो फासला है
बस उतना ही वक़्त है जब मुझे तुम्हारी
याद नही आती है...-
इंसानियत का दम घुटता है शायद
ऊंची इमारतों, व्यस्त सड़कों, शोर शराबे में
इसीलिए वो पहाड़ों में, मैदानों में, गांवों में रहती है,
शहर के बाहर बस्तियों में, गरीबी में बसती है
सामान से अटा पड़ा मकान
नोटों से भरी बड़ी तिज़ोरी
बंगलों में उसे खुद के लिए जगह कम लगती है,
अपनो से मिलने के लिए जहाँ
कैलेंडर देख कर वक़्त दिया जाता हो
इन रिवाज़ों में उसे खुद की अवहेलना सी लगती है,
यदा कदा जब किसी महंगे क्लब में
उस पर बड़ी बड़ी बातें होती है
किसी गरीब वेटर के दिल मे डरी, दबी, छुपी
इंसानियत मंद मंद हंसती है...-
मेरे छूने से अगर तू और हसीन हुआ है
तो यकीन मान
तुझे छूने का असर मुझ पे भी हुआ है,
मैं नज़र आता था ख़ुद को, आम आदमी की तरह
आईने में मिला जो बादशाह, तेरी वजह से हुआ है,
कमल के खिल जाने से खिल जाता है पानी भी
मोहब्बत का जादू कब एकतरफा चला है,
मेरी गज़लों से आने लगती है ख़ुशबू
मतलें में जब जब मैंने तेरा ज़िक्र किया है,
इंतेज़ार ए मेहबूब में पेश आऊंगा बड़े इत्मीनान से
मैं जानता हूँ
फल उसी का मीठा है, जिसने सब्र किया है...-