मैं शहर "बनारस" बन जाऊं
तुम गंगा नदी सी बह जाना
मैं घाट घाट ठहर जाऊँ
बन दीपक जल में जल जाना
मैं घाट "केदार" का चरण छू लूँ
तुम गंगारती सी दरस जाना
मैं "विश्वनाथ" में रम जाऊँ
तुम "संकटा" सी संकट हर लेना
मैं "दशाश्वमेध" में बस जाऊँ
तुम "शीतला" बन उबार लेना
ये ज़िंदा शहर "बनारस" है
"मणिकर्णिका" सी मुक्ति दिला देना
ये मन व्याकुल हो भटकता है
चौसठ योगिनी बन धर लेना
में बार बार जो राह भूलूँ
बन कपीश राह दिखा देना
हे त्रिपुरारी जगतपति
अपने में मुझको समाना तुम
जह्नु सुता हे माँ गंगा
अंत में अंक में भर लेना तुम-
सुनो,
गर रात के अंधेरे में चलते -चलते
खो गई तो..
क्या तुम आओगे.. अपने प्रेम
का दीपक जलाने??-
कुछ इस तरह से हम,
दिल ए मासूम को बहलाते रहे,
अंधेरा तो दिलों में था गालिब,
हम घरों में ही दीपक जलाए रहे।।-
31 दिसम्बर 2020
प्रिय धानी,
साल बदल रहा हैं लेकिन अपने मन के उन्माद को शब्दों में घोल नहीं पाया। इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैं चन्द अच्छे लम्हों के लिए पीछे मुड़ा, मैंने पाया कि सब लोग आगे निकल गए और मैं सफ़र में हमेशा की तरह अकेला रह गया। जिन सपनों को बीते साल जीना चाहता था उनको भी अच्छे लम्हों में पिरो ना सका। वैसे तुम्हारें लिये मैंने ख्वाहिशों के झरोखों के साथ उम्मीदों की लौं जलाए रखा हैं। उस राह ग़म की छींटे बहुत आएगी, क्या तुम उनसे बचा कर मेरी जिन्दगी में नई दीप जलाना चाहोगी..? प्रिय धानी क्या तुम भी बीते साल की तरह बदलना चाहोगी..?
...PikU...-
दुनिया में सबका महत्व समान है
फर्क है तो सिर्फ स्थान का........
क्योंकि सूरज के आगे दीपक का महत्व नहीं है
पर अंधेरे में दीपक से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं ☺
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किसी का दिल किसी का घर किसी का नाम जलता है
सभी के पास है दीपक जो सुब्ह-ओ-शाम जलता है-
सभी शब्दों के जादूगर,
कोई न छोटा या बड़ा।
एक ही मिट्टी से बने
क्या दीपक और क्या घड़ा।
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