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सारी उम्र हमें जिन हाथों ने सँभाला,
जिन हाथों ने बचपन मे गिरने से सँभाला,
आज भी उनके हाथों में मेरा हाथ है,
कैसे छोड़ दु इस हाथ को ये दादी माँ का साथ है!-
आंगन कि "चहल पहल" थी दादी,
बाबा की "ताजमहल" थी दादी,
अपने सभी बच्चों के मुश्किलों की हल थी दादी,
सुकून का "एक पल" थी दादी,
मां की "मीठी लोड़ी" थी दादी,
दूध जैसी "गोरी" थी दादी,
"शक्कर की बोरी" थी दादी,
ममता की खुली "तिजोरी" थी दादी,
दादी के बिना "घर" सुना लगता है,
दादी बिन "दोपहर" सुना लगता है,
दादी गाथा है, कहानी है,
दादी बचपन की एक "अनमोल निशानी" है..!!
:--स्तुति
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कल रात पड़ोसवाली दादी अम्मा
मर गयीं,हाँ जी मर गयीं
सारा परिवार जिंदा था
जिससे,वो बुढ़िया मर गयी
'गम'दादी के चले जाने का
नहीं था,किसी को
मलाल ये था, कि अब
पेंशन नहीं मिलेगी।
वही कोने पर
फफक-फफक कर
रो रही थी बहू
जिसने कई सालों से
दादी के कमरे में
कदम नहीं रखा था
बेटा भी ग़मगीन बैठा था उदास
आखिर अब घर का खर्च
कैसे चलेगा........?
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नीम की सीकों से दांत खोदती अम्मा चेहरे पे पड़ी तज़ुर्बे की झुर्रियों से टपकती ममता की छांव तले पलकर बड़े हुए बेटे की कैक्टसनुमा बातें आज भी अपनी मुस्कान के आंचल की ओट में बचपन की शरारतें समझ बाबा से छुपा लिया करती है।
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#मैं, दादी और कुत्ता
दादी की हर बात मानने का जुनून था,
फुर्तीला बहुत ही वो बचपन का खून था।
बची-खुची रेत पड़ी थी, कुछ हमारे घर में,
एक झुंड था कुत्तों का उसी की शरण में।
देख उड़ती रेत मुझको दादी ने हुँकार दिया,
ले दादी का डंडा मैंने कुत्तों को ललकार दिया।
भागते देख कुत्तों को मैं वीर बन गया,
वो छोटा डंडा दादी का शहतीर बन गया।
फेंक के डंडा मैंने फिर कुत्तों पर प्रहार किया,
देख निहत्था मुझको अब कुत्तों ने पलटवार किया।
वो काटने से पहले बहुत जोर गुर्राया था,
बंद थीं मेरी आँखें, पर लोगों ने बचाया था।
घुटने से ले के तलुवे तक बहुत खून बहा था,
पूछने पर माँ से बोला दादी ने ही कहा था।
ममता-वश माँ ने उनको भला-बुरा सब कह दिया,
बिना गलती के दादी ने चुपचाप सब सह लिया।
माँ के डर से सारी गलती दादी पर मैं थोप दिया,
झूठ बोल पापों का छुरा अपने दिल में घोंप दिया।-
कल जो बड़े शौक़ से सुनते थे कहानियां बच्चे।
अब मिलते है तो कई कहानियां बनाते है।-
तेरे बिना आज भी घर में एक दीप जला,
पर मन की गहराइयों में अंधेरा ही रहा,
तेरे होते, हर अपने ने मतलब से याद किया,
तेरे बाद, अपनो ने नहीं, ग़ैरों ने बे-मतलब प्यार दिया
तेरे बिना इस त्योहार में, ये घर मेरा अपना नहीं लगता,
सजता नहीं अब वो लइटों की जगमगाहट और अप्रतिम रंगों से,
बस, इक़ कोने में बिलखता रहता है एक मासूम दीया,
हवा संग रमकर, खोजता रहता है ख़ुशी की कोई वजह
तेरे बिना अब सजना संवरना, नए कपड़े, नई महक से, अब रास नहीं आता,
कि सूनी इन आँखों में, यादों के मोती उमड़ आते हैं,
कंठ में दब जाता है पूजा का हर स्वर,
सच्ची मुस्कान अब चेहरे पर खिलती नहीं
तेरे बिन मायूस रहता है घर का आंगन भी,
पटाखों की गूंज अब सन्नाटे में है खो जाती है,
याद है मुझे कि तुझे अंधेरा पसंद नहीं,
इसी कारण, हर दीवाली, एक दीप जला कर रखती हूँ-
पेड़ों पर झूले और दादी कि कहानियों में था
जीने का असली मज़ा तो इन्हीं नादानियों में था-