जब रोती है कोई स्त्री एकांत में "एकांत" एकांत नहीं रह पाता उसके अश्रु के बीज से अंकुरित होते हैं सहनशीलता के कोंपल
पहुंचकर ह्रदय के उद्गम द्वार तक सरलता से प्रवेश कर जाते है रूह में
कोंपल से किसलय में परिवर्तित होते ही उसका मौन ,उद्वेग से भर उठता है वो खड़ी होती है संकल्प लेती है दुर्गा के सामने ,सावित्री बनने का , लांछन झेलने का ,पीड़ाएं सहने का
और अंत में सीता बनकर समर्पित हो जाती है धरा के कोख में!
खत्म हो जाते हैं कुछ रिश्ते बनने से पूर्व ही किसी अनहोनी के खौफ से और प्रेम आश्रय हीन हो जाता है दूब पर सिमटे की बूंद की तरह ! यहां समाप्त नहीं होता किस्सा दूब और उसने नन्हे बूंद का ग्रीष्म बीतेगा , वर्षा ऋतु आएगी और फिर सहेज लेगा दूब उस नन्हें बूंद को एक खौफ के साथ की हवा का एक झोंका अलग कर देगा उन्हें
उसने कोठी बनवाई चमकदार रत्न जड़कर, उसने गांव के नाम बदल दिए प्रियसी के नाम से
उसने कोड़े बरसाए गांव के प्राचीन नाम लेने के आरोप में
मगर नहीं बचा पाया अपने प्रेम को उसने गीली मिट्टी के लेप लगते देखा प्रियसी के सुनहरे बालों में वैद्य जीवित नहीं कर पाया एक स्त्री की मृत आकांक्षाएं, और, वो रोता रहा कब्रगाह की मिट्टी बदन पर मल कर , मिट्टी उसके बदन पर बदरंग दिखती रही