वो दरीचा इमारत से झाँकता हुआ सा,
गर्द हवा दिन रात फाँकता हुआ सा,
याद करता है अपने दादा की कहानी,
था घर वो छोटा पर ज़िन्दगी थी सुहानी,
परिंदों की जोड़ी से आबाद थे वो,
कुनबे के रंगों से पुर-शाद थे वो,
अब हवा के ज़हर से परिंदे गुम हैं,
है कहने को घर पर बाशिंदे गुम हैं,
अब दिखता नहीं वो नदी का किनारा,
इमारत, इमारत बस इमारत का नज़ारा,
सुबह रौशनी भी ठीक से आती नहीं है,
रात चाँदनी भी रस्ता दिखाती नहीं है,
बारिशों की रिम-झिम है ख़्वाबों की बातें,
दरख़्तों के पत्ते सराबों की बातें,
ख़ुदा से लगाता गुहार वो अक़्सर,
लौटा दो वो दुनिया भले छोटा सा हो घर।
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