सेज पर शमशान की स्थिर अकेला रह गया,
भीड़ का पर्याय भी आख़िर अकेला रह गया।
तालियाँ जब बे-सलीकों की तरफ बढ़ने लगीं,
बे-हुनर बढ़ने लगे माहिर अकेला रह गया।
आपको प्रेमी से ज़्यादा थी पुजारी की तलब,
इसलिए ये आपका काफ़िर अकेला रह गया।
दुख नहीं है के जवानी फिर से महफ़िल पा गयी,
दुख मगर है के बुढापा फिर अकेला रह गया।
क्या बताएँ बे-ख़ता किरदार सारे मर गये,
और कहें कैसे 'फ़क़त' शातिर अकेला रह गया।
-ऋषि 'फ़क़त'-
लाखों जतन के बाद भी अच्छी नहीं बनी,
दुन्या हमारे ख़्वाब के जैसी नहीं बनी।
माना मैं तेरे प्यार में जोगी नहीं बना,
तू भी तो मेरे वास्ते देवी नहीं बनी।
बरसों से जायदाद में हिस्सा नहीं मिला,
बरसों से फिर भी बेटी तो बाग़ी नहीं बनी।
सब लोग कह रहे थे कि मेहनत से बनती है,
हैरत है मेरी ज़िन्दगी फिर भी नहीं बनी।
वो साथ था तो बन रहे थे मेरे दो जहाँ,
वो क्या गया दो जून की रोटी नहीं बनी।
-ऋषि 'फ़क़त'
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बहुत सा धन है सीने में हमारे,
कि अपनापन है सीने में हमारे।
सहूलत मिल रही रोने में हमको,
कोई बिरहन है सीने में हमारे।
उधर पायल ख़रीदी भर है उसने,
इधर छन-छन है सीने में हमारे।
नए अंदाज़ से हम हँस रहे हैं,
नई टेंशन है सीने में हमारे।
भला कैसे कोई छीनेगा उसको,
जो क़ानूनन है सीने में हमारे।
बिना सोचे भी तुमको सोचते हैं,
ये भी इक फ़न है सीने में हमारे।
जहाँ पे आती है सुख-दुख की गाड़ी,
वो स्टेशन है सीने में हमारे।
-ऋषि 'फ़क़त'
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जिसके बग़ैर ज़ीस्त से रंजिश है शायरी,
उसके बग़ैर जीने की कोशिश है शायरी।
उसने दुखों के बोझ से सल्फास खा लिया,
मेरे लिए दुखों की नवाज़िश है शायरी।
मन की तपन से जो बने वो अब्र हैं ख़याल,
उनसे जो हो रही है वो बारिश है शायरी।
मुझको रदीफ़ क़ाफ़िया अब कर रहे हैं क़ैद,
मेरे ख़िलाफ़ कर रही साज़िश है शायरी।
फाँसी से पहले आख़िरी ख़्वाहिश की बात पर,
मैने कहा कि आख़िरी ख़्वाहिश है शायरी।
-ऋषि 'फ़क़त'
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इक अजनबी ख़याल के जानिब चला गया,
मन हिज्र से विसाल के जानिब चला गया।
आज़ादगी भी कैद है ये जानने के बाद,
ख़ुद ही शिकार जाल के जानिब चला गया।
जिस पल लगा कि सीना धड़कने लगेगा अब,
ये जिस्म इंतिक़ाल के जानिब चला गया।
जब से शिकस्त मिलने लगी पूरी चाल से,
घोड़ा अढ़ाई चाल के जानिब चला गया।
ये सुनते ही कि जाता है प्यासा कुँए के पास,
आँसू मेरा रुमाल के जानिब चला गया।
ऋषि 'फ़क़त'
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ग़लतफ़हमी के मारों को बड़ी तकलीफ़ होती है,
मेरे जैसे हज़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
उदासी, याद, तन्हाई, ख़मोशी ख़ाक होती हैं,
तेरे आने से चारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
ख़िज़ाँ बेरंग रह, पर दिल को इतनी लज़्ज़तें ना दे,
के फिर रंगीं बहारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
चला है इश्क़ में इज़हार करने का चलन जब से,
निगाहों के इशारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
हमेशा बेवकूफों को बहुत आराम होता है,
हमेशा होशियारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
ऋषि 'फ़क़त'-
शरर, जुगनू, दिया कोई नहीं है,
उजाले का सगा कोई नहीं है।
हमारे गाँव में होती है शादी,
यहाँ लिव-इन शुदा कोई नहीं है।
कबीले के हैं हम सरदार लेकिन,
हमारी मानता कोई नहीं है।
तू कैलेंडर है पिछले साल वाला,
तुझे अब देखता कोई नहीं है।
हमारी ज़ीस्त में तेरे अलावा,
तो वैसे हादसा कोई नहीं है।
मैं अपनों को हमेशा ढूँढता हूँ,
अगरचे लापता कोई नहीं है।
ऋषि 'फ़क़त'-
वो कौन है जो आठ पहर इश्क़ में नहीं,
कैसे जिएगा कोई अगर इश्क़ में नहीं।
जब इश्क़ की सड़क पे हुए गुम तो ये लगा,
के वापसी की कोई डगर इश्क़ में नहीं।
मुझको नहीं हो सकता है बंधन में इश्क़ विश्क़,
शादी - शुदा तो हूँ मैं मगर इश्क़ में नहीं।
इक उम्र में थी इश्क़ मनाने की हड़बड़ी,
इक उम्र बाद वैसा असर इश्क़ में नहीं।
हमको इधर है जिसके लिए इश्क़ इश्क़ इश्क़,
वो शख़्स जाने कैसे उधर इश्क़ में नहीं।-
दिया जो जल के बुझा है तो कोई बात नहीं,
जो होना था वो हुआ है तो कोई बात नहीं।
यही बहुत है कि तुम हाल पूछने आई,
हमारा हाल बुरा है तो कोई बात नहीं।
रक़ीब की ज़रा सी चोट गहरी बात है और,
जो मेरा ज़ख़्म हरा है तो कोई बात नहीं।
तेरे दुखों के तवे पे सिकी सुख़न ने कहा,
कि दुख जो तुमसे मिला है तो कोई बात नहीं।
न जाने कितनी ही बातें थीं जब वो दूर था और,
वो आज पास खड़ा है तो कोई बात नहीं।
-ऋषि 'फ़क़त'
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भले जीना पड़े मजबूर हो के,
जिऊँगा मैं तेरा सिन्दूर हो के।
तुम्हारे ख़्वाब शीशे की तरह हैं,
बहुत चुभते हैं चकनाचूर हो के।
मैं उसका रस्ता हूँ, मंज़िल नहीं हूँ,
मुझे भूलेगा वो मशहूर हो के।
कहानी बनती उसके पास रह कर,
ग़ज़ल बनती है उससे दूर हो के।
तेरे जाने का ग़म क्या जा सकेगा,
भरेगा ज़ख़्म क्या नासूर हो के।
-ऋषि 'फ़क़त'-