वस्ल की गर्मी न थी वाबस्तगी में,
इसलिए हूँ हिज्र के ज्वालामुखी में।
कैसे होगी मुझको दोबारा मुहब्बत,
कैसे आएगी कमी उसकी कमी में।
जाते-जाते तो बताती जा मुझे ये,
ज़िन्दगी तू क्यूँ न थी इस ज़िन्दगी में।
मिल गई हर शय जहाँ की आपको पर,
आप ख़ुद को मिल न पाए आप ही में।
आग बाकी है तो कर लो शौक पूरे,
आग लग जानी है इक दिन तिश्नगी में।
-ऋषि 'फ़कत'-
जिसने जाना नहीं है तरीका मेरा,
बस उसी ने किया है भरोसा मेरा।
रब्त की ख़ुदकुशी का ज़री'आ थे हम,
था दुपट्टा तेरा और पंखा मेरा।
आरज़ू के दिये तू अकेला नहीं,
तू बुझेगा, उठेगा जनाज़ा मेरा।
एक झुरमुट में रहने को मजबूर हूँ,
जिस्म फ़िलहाल है आशियाना मेरा।
क्यों 'फ़क़त' तीरगी ने है देखा मुझे,
क्यों ख़मोशी ही करती है चर्चा मेरा।
-ऋषि 'फ़क़त'-
निकला हूँ उसके इश्क़ से आगे की खोज में,
इस आशिक़ी के बाद के धोखे की खोज में।
मैं तुझसे पहले खोए हुए दिल को खोज लूँ,
मैं रहमतों से पहले हूँ कासे की खोज में।
उस क़ौम ने किया है तरक़्क़ी से खुद को दूर,
जिसने दिया है वोट बताशे की खोज में।
यूँ ही हमारी साँस को बे-सम्त मत कहो,
ये चल रही है आख़िरी लम्हे की खोज में।
अक्सर नहीं मिलेगा वहाँ मस'अले का हल,
रहते जहाँ हैं लोग तमाशे की खोज में।
-ऋषि 'फ़क़त'-
सेज पर शमशान की स्थिर अकेला रह गया,
भीड़ का पर्याय भी आख़िर अकेला रह गया।
तालियाँ जब बे-सलीकों की तरफ बढ़ने लगीं,
बे-हुनर बढ़ने लगे माहिर अकेला रह गया।
आपको प्रेमी से ज़्यादा थी पुजारी की तलब,
इसलिए ये आपका काफ़िर अकेला रह गया।
दुख नहीं है के जवानी फिर से महफ़िल पा गयी,
दुख मगर है के बुढापा फिर अकेला रह गया।
क्या बताएँ बे-ख़ता किरदार सारे मर गये,
और कहें कैसे 'फ़क़त' शातिर अकेला रह गया।
-ऋषि 'फ़क़त'-
लाखों जतन के बाद भी अच्छी नहीं बनी,
दुन्या हमारे ख़्वाब के जैसी नहीं बनी।
माना मैं तेरे प्यार में जोगी नहीं बना,
तू भी तो मेरे वास्ते देवी नहीं बनी।
बरसों से जायदाद में हिस्सा नहीं मिला,
बरसों से फिर भी बेटी तो बाग़ी नहीं बनी।
सब लोग कह रहे थे कि मेहनत से बनती है,
हैरत है मेरी ज़िन्दगी फिर भी नहीं बनी।
वो साथ था तो बन रहे थे मेरे दो जहाँ,
वो क्या गया दो जून की रोटी नहीं बनी।
-ऋषि 'फ़क़त'
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बहुत सा धन है सीने में हमारे,
कि अपनापन है सीने में हमारे।
सहूलत मिल रही रोने में हमको,
कोई बिरहन है सीने में हमारे।
उधर पायल ख़रीदी भर है उसने,
इधर छन-छन है सीने में हमारे।
नए अंदाज़ से हम हँस रहे हैं,
नई टेंशन है सीने में हमारे।
भला कैसे कोई छीनेगा उसको,
जो क़ानूनन है सीने में हमारे।
बिना सोचे भी तुमको सोचते हैं,
ये भी इक फ़न है सीने में हमारे।
जहाँ पे आती है सुख-दुख की गाड़ी,
वो स्टेशन है सीने में हमारे।
-ऋषि 'फ़क़त'
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जिसके बग़ैर ज़ीस्त से रंजिश है शायरी,
उसके बग़ैर जीने की कोशिश है शायरी।
उसने दुखों के बोझ से सल्फास खा लिया,
मेरे लिए दुखों की नवाज़िश है शायरी।
मन की तपन से जो बने वो अब्र हैं ख़याल,
उनसे जो हो रही है वो बारिश है शायरी।
मुझको रदीफ़ क़ाफ़िया अब कर रहे हैं क़ैद,
मेरे ख़िलाफ़ कर रही साज़िश है शायरी।
फाँसी से पहले आख़िरी ख़्वाहिश की बात पर,
मैने कहा कि आख़िरी ख़्वाहिश है शायरी।
-ऋषि 'फ़क़त'
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इक अजनबी ख़याल के जानिब चला गया,
मन हिज्र से विसाल के जानिब चला गया।
आज़ादगी भी कैद है ये जानने के बाद,
ख़ुद ही शिकार जाल के जानिब चला गया।
जिस पल लगा कि सीना धड़कने लगेगा अब,
ये जिस्म इंतिक़ाल के जानिब चला गया।
जब से शिकस्त मिलने लगी पूरी चाल से,
घोड़ा अढ़ाई चाल के जानिब चला गया।
ये सुनते ही कि जाता है प्यासा कुँए के पास,
आँसू मेरा रुमाल के जानिब चला गया।
ऋषि 'फ़क़त'
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ग़लतफ़हमी के मारों को बड़ी तकलीफ़ होती है,
मेरे जैसे हज़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
उदासी, याद, तन्हाई, ख़मोशी ख़ाक होती हैं,
तेरे आने से चारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
ख़िज़ाँ बेरंग में जैसे ही दिल को लुत्फ़ आता है,
हसीं, रंगीं बहारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
चला है इश्क़ में इज़हार करने का चलन जब से,
निगाहों के इशारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
हमेशा बेवकूफों को बहुत आराम होता है,
हमेशा होशियारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।
ऋषि 'फ़क़त'-
शरर, जुगनू, दिया कोई नहीं है,
उजाले का सगा कोई नहीं है।
हमारे गाँव में होती है शादी,
यहाँ लिव-इन शुदा कोई नहीं है।
कबीले के हैं हम सरदार लेकिन,
हमारी मानता कोई नहीं है।
तू कैलेंडर है पिछले साल वाला,
तुझे अब देखता कोई नहीं है।
हमारी ज़ीस्त में तेरे अलावा,
तो वैसे हादसा कोई नहीं है।
मैं अपनों को हमेशा ढूँढता हूँ,
अगरचे लापता कोई नहीं है।
ऋषि 'फ़क़त'-