कोई औरत न कहलाये कभी बदचलन
यदि आदमी सुधार ले अपने चाल-चलन !!-
किसी मासूम की लूट रही थी,
कुछ दरिंदे लूट रहे थे
नामर्द थे वो जो तमाशा देख रहे थे-
जब जब तू भरोसा करेगी
मर्द की बात मान कर ...
तब तब यू ही छली जाएगी।
अपने ऐतबार पर...
नारीशक्ती का झाँसा देकर
खुद तुझसे तेरे कपडे उतरवाएँगे
पहले आँखो से जिस्म टटोलेगे
फिर वहशीपन दिखलाएंगे
मिलकर कर फिर तुझको नोचेंगे
और अपनी भूख मिटाएँगे..
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जाए न कोई जान फिर, आवाज़ उठाओ,
काटे न फिर ज़ुबाँ कोई, आवाज़ उठाओ,
हर बेटी मुल्क की मेरे हिफ़ज़ो-अमाँ में हो
फिर कोई मनीषा न हो, आवाज़ उठाओ।
कमज़ोर समझता है वो पलकें न करो नम
आँसू न गिराओ बस अब आवाज़ उठाओ।
इंसाफ़ के नारों से गुँजा दो गली-गली
ऐसी बनो सदा के यूँ आवाज़ उठाओ।
ऊँची न हो आवाज़ तो सुनता नहीं कोई
चिल्लाके कहो बात, अब आवाज़ उठाओ।
मोमबत्तियाँ काफ़ी नहीं अंधे समाज को
मशाल उठाओ, के तुम आवाज़ उठाओ।-
वो छोटे छोटे कदमों से चलना ही शुरू की थी।
अपनी छोटी-छोटी शरारतों से सबके चेहरे
पर हंसी ला देती थी।
अपनी फूल जैसी मुस्कान से पूरे घर में रौनक
कर देती थी। माँ-बाप के आखों का तारा थी।
जिसकी प्यारी-प्यारी बातों से पत्थर भी मोम
हो जाता था। वो तो छोटी सी बच्ची थी।
ढंग से बोल तक नहीं पाती थी।
जिसने ठीक से अपना बचपन तक नहीं देखा था।
उसके साथ ये अन्याय हुआ?
जिसमें उसकी तनिक भी गलती नही थी।
सात साल की बच्ची के साथ ये कैसा
अपराध हुआ? उसपे इतना घिनौना जुर्म हुआ।
वो कितना रोई होगी, कितना चिल्लाई होगी,
ये सब सुनकर, देख कर, मेरा कलेजा फ़ट गया है।
तो उस बेटी के माँ-बाप कैसे सोये होंगे रातों को?
जिस मासूम को देख कर मन में प्यार उमड़ के
आता है। उसके साथ ऐसी हैवानियत पर उतर
आये। तुम्हारा जमीर तुम्हें धिक्कारा नहीं तुम
तो जानवरों से भी घटिया हो।-
जिंदा लाश थी वो खुद की नजरों में,
अब भरोसा किस पर करती,
लूट गया सब कुछ जो कमाया था,
उसकी जिंदगी में एक दिन ऐसा भी आया था,
जिंदगी जीने के खातिर ख्याल मरने का आया था।-
तुम जानवर होकर, दरिंदगी कर रहे हो,
क्यों बेवजह तुम, आदमी हुए जा रहे हो।-
(१) एक संवेदनशील मानव, जो बहुत डरता है
नन्ही सी जान को केवल गोद मे लेने पर,
बेटी है फिर भी वो बाप दूर से ही स्नेह करता है,
(२) एक दानव है, जिसको फर्क नही पड़ता है,
धिनौना कृत्य करता है बच्ची को कहीं और ले जाकर,
लड़की किसी और की है इसलिए वो कुछ भी करता है।
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उधड़े हुए जिस्म पर जो तुम निशान देखते हो,
हैवानियत और दरिंदगी की पहचान देखते हो,
बिखरी है जो सिर्फ एक जिस्म थी उनके लिए,
दांतों और नाखूनों से लिखा तुम नाम देखते हो,
तंग कपड़े थे उसके या तन्हा घर से निकली थी
उठी उंगलियाँ, तार होता उसका मान देखते हो,
एक निर्भया मरती नहीं और दूसरी जी उठती है
रोज नई अर्थी का तुम साजो सामान देखते हो,
शोर उठेगा, रैलियां निकलेंगी कुछ दिन के लिए
लो अब बुझी राख पर उठता मकान देखते हो !-