सरकारी नौकरी और महाकुंभ पर एक अद्भुत काव्यपाठ।।
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मन ने भी साथ दिया और मर्जी तक ही रखा था
मैंने भी अपना रिश्ता इक लड़की तक ही रखा था
वक्त बहुत था ट्रेन को लेकिन चढ़ने को तैयार न थी
उसने भी खुद को समझो खिड़की तक ही रखा था।-
हाथ में आए रिश्ते नाते नही निकालता
फजूल में लड़ने को बातें नहीं निकालता
करीब आने का वो सिलसिला नहीं रहा
अब बारिशों में वो छाते नही निकालता
मैं बच्चों की जैसे उसकी गलतियों पर
माओं की तरह आंखें नहीं निकालता
मुसलसल ढुंढता हुं वजह सुलह की
सोकर कभी भी रातें नहीं निकालता
रोज सफर में कितने हद तक गिरता हुं
क्या तेरे पांव के मैं कांटे नहीं निकालता।-
उस परिंदे को मेरी छत भी प्यारी नही,
और एक मुझी से वो दाना भी चाहता है
नींद भी आती मेरे महबूब को इन बाहों में
फिर मुझे ही छोड़कर जाना भी चाहता है,
बात बस मेरे से करेगा और इस दरमियान
कइयों की बात करके जलाना भी चाहता है।-
मशरुफ रहे मेरे हाथ फूल छिपाने मे ,
शिकायत ये की मैंने हाथ नहीं मिलाया।-
मिलो तो फिर कोई बात रहे
खामोशी नहीं कोई जज़्बात रहे,
हाथ छूटे तो भी उंगली फंसी रहे,
रहे तो फिर ऐसे कोई साथ रहे।-
उन दिनों रहे इश्क के चर्चे हमारे भी,
कबूतरों ने गिरा दिए पर्चे हमारे भी,
उधर घरवालों ने उसको सजा सुनाई
इस तरफ मां बाप गरजे हमारे भी,
इश्क में गुलाब गए हिज़्र में शराब आई
जिंदगी भर होते रहे ख़र्चे हमारे भी-
हर बरस की तरह ये बरस भी गया
फिर से तेरे दीदार को तरस ही गया
कल देखते हुए आईने में यकायक
आखिर वो खुद पर बरस ही गया
हाथ और लकीरों पे था जो भरोसा
एक शख्स गया दस्तरस भी गया
अपनाया फजूल से भरा इक रास्ता
उसने मरना था फिर चरस पी गया।-
हर ग़लती पूरी भुलाई नहीं जाती
थोड़ा तो सब अफसोस में रहते हैं
वो जिंदगी नहीं कोई पागलपन था
अब देखिए की हम होश में रहते हैं।-
अभी वजूद नहीं बस पत्थर की मूरत लगुंगा मैं
एक रोज तुम्हारे जिंदगी की जरूरत बनुंगा मैं
इन आंखों से यही ख्वाब देखा हूं सोते जागते
हकीकत में भी तुम्हारे साथ खुबसूरत लगुंंगा मै-