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मैंने एक जीवंत सपना देखा
जीवन का अंत अपना देखा
देह से अपने मैं अलग खड़ा था
गालों पे सब के अश्रु रेखा
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पीले फूलों की
रेशमी चादर ओढ़े
इस बगिया में मैंने
शब्दों का पौधा
उपजाया है
भाव बनकर
उमड़ रहा
वो पौधा आज
प्रचुरता से
खिलखिलाया है
कल्पनाओं का
नीर पिलाकर
मैंने जीवन से
उसे मिलाया है
जीवंत होते देख जिसे
मेरी जिजीविषा ने
संबल पाया है!
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अक्स कुछ धुंधला -सा था, मगर सब जीवंत-सा ही था,
वादियों में सुकूं था, मौसम बेहद हसीन बना बैठा था!
मंद-मंद पुरवईयां थी, कुछ सन्नाटा -सा छाया था,
वो चमकती चांदनी से भरी रातो का किस्सा था!
चाँद तले बैठा उसे करीब पाया था, कभी मुस्काना,
तो कभी उसका नजाकत से नजरे झुकाना भाया था!
कोयल -सी मीठी बातों, झील से गहरे नयनो में खुद को डूबा पाया था,
चंद पलो में ही सब खोया -सा था खुलते ही आँख में रोया -सा था!
जीवंत - सा जो चित्र लेखा था,
ओह!मैंने वो "सपना देखा था"!
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कहानी मेरी पढ़ने वालों एक काम तुम करना
अपने दिल को तुम प्रेम ,संयम ,करुणा से भरना ।
जीवन को हर पल तुम जीवंत बनाना
हर पल जीने का तुम उत्सव बनाना ।-
# 20-08-2020 # काव्य कुसुम # ज़िंदगी #
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ज़िंदगी है जब तक ज़िंदा होने का एहसास बना रहे ।
ज़िंदगी है तब तक उम्दा होने का विश्वास बना रहे ।
मर मरकर जीने से तो जीवंत होकर जीना बेहतर है-
ज़िंदगी है तब तक ज़िदादिली का आभास बना रहे ।
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तुम पढ़ना चाहते हो कविता पीड़ा की
पीड़ा महसूस की जाती है लिखी नहीं जा सकती
बहुत कठिन होता है
चाबुक और बेल्ट के दर्द से अधिक
हृदयाघात को उकेरना अपने शब्दों में
तन की पीड़ा से मन की पीड़ा
अधिक चोट करती है
समझना चाहते हो तो
उन आंँखों में झांँककर देखो, जो पथरा सी गई हैं
संकुचित मानसिकता के साथ
अपनी इच्छाओं को मारते मारते
एकाकीपन के साथ, व्यंग्य बाणों को झेलते हुए
प्रयास कर रही है मात्र जीवित रहने का
जीवंत कविता स्पष्ट है
वास्तविकता और कुंठित मानसिकता के मध्य
झूलते जीवन में
गली और चौबारे पर उस भय में दिखाई देती
झुंड के मध्य से होकर गुजरती मासूम आंँखों में
अपनों के मध्य भी असुरक्षित महसूस करती
छोटी बच्चियों में, हाँ उन मौन चीखों में भी
जो कविता हर दिन लिखी जा रही है
पीड़ादायक है पीड़ा की कविता....
- दीप शिखा
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