मन का आँगन ,लीपे बैठी हूँ
देहरी पर दीप जलाए बैठी हूँ।
उम्मीद वाली जुगनुओं को
आँखों में सजाए बैठी हूँ।
उमस भरे दिवस के अवसान पर
बावली हवाओं को संभाले बैठी हूँ।
नेह सागर से कितने ही
यादों के सीप बटोरे बैठी हूँ।
आ जाओ अब कि मरु में
गुलमोहर,अमलतास के रंग लिए बैठी हूँ।
©Anupama Jha
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गुलमोहर के फूलों से ,
लदी डालीयाँ ....
सदा मुझे , तुम्हारा ....
स्मरण करवाती है ,
जहाँ तुम्हारे हृदय में ....
सिर्फ और सिर्फ ,
मेरे लिए प्रेम ही भरा है ....
संवेदित मन की शाखाएँ ,
जानती है ....
हम दोनों ही अपुर्ण है ,
एक-दुजे के बिना ......
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कुछ ख्वाब करीने से शाखों पे सजाए थे,
ले हाथ में गुलदस्ते, हंँसता है गुलमोहर।
इक लम्हा इक बादल, इक ख्वाब किया चोरी,
इतनी सी शरारत पे, हंँसता है गुलमोहर।
कुछ चांद सितारे थे,कुछ प्यार का मौसम,
बौराई हुई यादें, हँसता है गुलमोहर।
चटकी हुई शाखों पर, नाजुक- नाजुक पत्ते,
क्यों फागुन की दोपहरी,हँसता है गुलमोहर।
तपती हुई यादों का,सुलगा हुआ सा मंजर,
एक आग सी लगाकर,हंँसता है गुलमोहर।
Chandrakantajain
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कुछ यादें हमेशा महकती रहती हैं
गुलमोहर की तरह
कुछ यादें चुभती हैं
कैक्टस की तरह
गुलमोहर आँगन में खड़ा है
कैक्टस दरवाज़े के बाहर!-
इक दिन गुलमोहर हो जाना....
संवेदित मन की शाखाएं,
पर्णहरित कलियां कुम्हलाएं।
कृश तन मलिन हुए मुख मंडल,
आभासी पतझड़ हो जाना।
पीड़ा तुम प्रस्तर हो जाना।
आहत मन की करुण कथा में,
अवगुंठित अवसाद व्यथा में।
धीरज संबल ढूंढ न पाए,
क्षणभंगुर नश्वर हो जाना।
पीड़ा तुम प्रस्तर हो जाना।
प्रीति-
बूढ़ा है बेशक, मेरा ये शजर-ए-इन्तज़ार..
ताज़े हैं अब भी तेरे.. इश्क़-गुलमोहर..
बर्ग-ए-इज़्तेराब, खिलते हैं.. झड़ जाते हैं..
जड़-ए-सुकूत से, सदाबहार ये गुलमोहर..
बख़्शीश-ए-ज़िंदग़ी है या है रहमत-ए-ख़ुदाया
आराम ही आराम है ये छांव-इश्क़-गुलमोहर!!..-
पाषाण शिला सा ह्रदय मेरा
हर रोज़ कलम से अपना ह्रदय तोड़ती हूँ
भर कर लहू तूलिका में एक नया पीर लिखती हूँ
कभी मीरा बन कर विचरती हूँ कभी "देवी" का भाव बनती हूँ
अमलतास औ गुलमोहर सी हूँ मैं ,बैशाख में बसन्त को तरसती हूँ-
फूल गुलमोहर के याद दिलाते है,
मुझको मेरा बचपन,
वो स्कूल के दिन,
वो गर्मियों के लंबे दिन,
जब वो मेरे स्कूल के अंदर वाला गुलमोहर का पेड़,
फूलों से लदा हुआ करता था,
और मैं क्लासरूम से अक्सर उन फूलों को निहारा करती थी,
जब लंच ब्रेक में सब भाग के गुलमोहर के पेड़ के पास इकट्ठा होते थे,
भूख गायब रहती थी,
जब गुलमोहर की कलियां चुनने की होड़ लगती थी,
उनकी पंखुड़ियों को नाखून में चिपकाकर दोस्तों को डराया करते थे,
और उसके अंदर के बीज से तलवारबाज़ी हुआ करती थी,
वो यादें कितना सुकून देती हैं आज भी,
जब भी देखती हूं "फूल गुलमोहर के"।-
....."गुलमोहर और प्रेम".....
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जिस प्रकार कड़ी धूप में
कई यातनाएं सह कर भी
"गुलमोहर" अडिग खड़ा रह अपने
पुष्पों के रंग को प्रकृति में बिखेरता है,
ठीक उसी प्रकार हमारे मार्ग में
चाहे कितनी भी बाधाएं आए
परंतु "हमारे प्रेम" की जड़ें हमेशा
प्रगाढ़ रहेंगी और एक-दूसरे के प्रति
हमारा विश्वास ही हमारे प्रेम रूपी
पुष्प का अद्भुत रंग होगा......💞
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