मैं तुम्हें किसी बंधन में नहीं रखूंगी।
मैं तुम्हें उड़ने दूंगी ।
तब तक ।
जब तक ।
तुम्हें ये एहसास ना हो जाए ।
पंछी की उड़ान सीमाहीन क्षितिज तक भले ही हो।
लौट कर आना तो उसे अपने घोंसले में ही है।
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ईश्वर ने प्रकृति को इसलिए बनाया होगा जिसे मनुष्य देखकर
जी सके "स्वार्थहीन प्रेम" के "क्षितिज" कि "प्रकाष्ठा" को,
यकीन हो सके मनुष्य को बिना "अपेक्षा" के
"स्वतंत्र प्रेम पर"...!!!!!
(:--स्तुति)-
शनैः शनैः अद्भुत दृश्य की छटा बिखेरती
एक नैसर्गिक गोधूलि बेला
जीवन शक्ति का परिचय देती यह अद्भुत बेला
संपूर्णानंद कोआगाज करती यह गोधूलि बेला
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इस गोधूलि बेला के अवसर पर
भिन्न-भिन्न नजारें पेश करती प्रकृति
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अद्भुत नजारों का चित्रण करता
प्रकृति का हर एक कण
जो देता मन मस्तिष्क पटल पर सृजनात्मकता को निमंत्रण
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क्षितिज की ओर कदम बढ़ाता भास्कर एक नया संदेश देता
एक ढलते शांत स्वरूप में जीवन सत्य को उजागर करता
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नील गगन में दूसरी ओर प्रकाशित धवल तुषार रूपी चंद्रमा
अपने बढ़ते प्रभाव की महिमा को उद्घाटित करता
एक भिन्न प्रकाश का महत्व प्रकटित करता
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ऐसा प्रतीत होता कि जैसे प्रकृति अपना एक रूप समेट कर नए रूप को धारण करके एक अकाट्य जीवन दर्शन को प्रस्तुत करती ।
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आज एक नहीं कई सूरज डूबे थे
क्षितिज ही नहीं धरती भी लाल हुई थी-
श्वेत-क्षितिज की मांग पर जब सिंदूरी सा छाता है।
मानो किसी विधवा का पुनर्विवाह कराया जाता है।।-
नवयौवनी बाला
अधेड़ उम्र साजिंदे का
अपनी शर्तों पर शृंगार कर
उसे पा जाती है अपने अनुरुप
जकड़ लेती है इस तरह
अपने मोहपाश में
कि वो गिरा बैठता है आईना
...और फिर एक दिन
जब अंतिम पहर होता है
इस आकर्षण का
तो खुलता है एक नया आईना
चटक जाती है उसकी तरुणाई
और वो साजिन्दा
दूर जाने की फिराक में
चलता चला जाता है;
आज वो साजिन्दा आकाश है
तरुणी धरा, हम सब रोज निहारते हैं
वो आकर्षण... क्षितिज कहकर!-
मैं तो उस बुलंदी की पहचान हूं, जो अपने हौसलों के पंखों से उड़ान भरता है...
क्षितिज को पाने की चाह में, जो हर रोज अपने घर से निकलता है...
Presented by DKS
( Deepak Kumar Sharma )-
तुझमे सिमट के अब तेरे ही हो जायेंगे ,
फ़लक से क्षितिज का सफर,
अब ज़रा हीं बाकि है ।
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एक दूरचे क्षितीज
अजून गाठायचे आहे मला,
सूर्य अस्तास निघाला जरी
तुझी साथ राहू दे क्षणोक्षणी.....-