कितनी नादान है मेरे देश और गाँव की मिट्टी भी
सच है ये मिट्टी एक समान है सबके लिए, और
मैं यहाँ खेती कर के अन्न उपजता हूँ
हाँ मैंने अपनी फ़िकर नहीं किया कभी
भले चाहे भरी बरसात में हो या कड़ी धूप में
या कपकपाती जाड़े का मौसम ही क्यूँ न हो।
"अन्न उपजा कर खुद के संग संग सभी का पेट भरता हूँ मैं"
और फ़िर भी ये शहर के बड़े लोग
मुझ ग़रीब किसान को हीन भाव से देखते हैं
कभी देसी तो कभी गाँव वाला कह कर संबोधित करते हैं
सचमें बड़ा ही तुच्छ हूँ मैं इन बड़े लोगों के बीच में
पर ख़ुश हूँ, की ये बड़े लोग न सही मेरी मिट्टी ने मुझे दिल से अपनाया है।।
जय श्री राम 🙏-
अपनी फसलों को आधे भाव में बेचकर भी वो किसान हमेशा खुश रहता हैं...
क्योंकि उसे अपनी कमाई से ज्यादा दूसरों का पेट भरने में आनंद आता हैं...
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मुट्ठी भर दाना किसान
संसद में डाल दे
वर्षों से वो ज़मीन बड़ी
बंजर पड़ी हुई है
टिड्डियों की बिसात
क्या है उनके आगे
नस्ल वो जो संसद में
दशकों से जमी हुई है
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विकासशील देश
मेहताब का चाँद से झगड़ा हो गया
आफ़ताब का सूर्य से रगड़ा हो गया
प्रत्येक हरेक से बिन बात भिड़ गया
धार्मिक भेदभाव जबसे तगड़ा हो गया
मनुष्य का इंसान से लफड़ा हो गया
दुष्प्रचार दंभ दिखावा अगड़ा हो गया
हक़ मांगता किसान सड़क पे आ गया
विकासशील देश फिर से पिछड़ा हो गया-
ऐसा क्यूं होता, औरों का पेट भरने वाला ।
यूं ख़ाली पेट, कचोट के साथ है सोता ।
(Read in caption)
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किसानों के लिए ही तो
बना कृषि कानून
जब उन्हें ही नहीं मंजूर तो
ये कानून भला किस काम का..
किसान हमारे लिए सर्वोपरि है
वो आंदोलन करते हुए मर रहे है तो
फ़िर ये सोच भला किस काम का..-
चुनौती दे कर इस पूस की रात को
देखो कैसे इत्मिनान से सो गया वो आसमां ओढ़कर-
समंदर की लहरें
मेरे क़दमों में
यूं दम तोड़ देती हैं
जैसे मर जाता है
किसी के क़दमों में
अपने घर को बचाने की
गुहार लगाता किसान
- सुप्रिया मिश्रा-