वो लोग खुद भी मरते और दूसरों को भी डूबा ले जाते
आँखों से निकले आँसू अगर समंदर हो जाते
तेरी मेरी चाह से तुझे चाहा पर जबरन ना चाहा
वरना कब के तेरे इश्क़ में सिकंदर हो जाते
क़सम से होती तेरी तस्वीर अगर सलाखों के पीछे
हम खुशी-खुशी एक जुर्म करते और अंदर हो जाते
बुरे ख़्वाब बुरी सोच से बचाये खुदा जात-ए-आदमी
गुनाह करके गंगा जाने से अच्छा कलंदर हो जाते
इंसानियत भूल गुनाह कर रोज उतर आता हूँ अखबार में
ए-खुदा बर्षों पहले हम जंगली थे अच्छा होता फिर बंदर हो जाते
तालियाँ, शोर, इश्क़िया आवाज उठती इसी भीड़ से बेनाम
खबर होती इसी महफ़िल में है वो लहजे मेरे और सुंदर हो जाते-
सब्र मेरे अंदर नही, अब क्या कीजे
सहरा हूँ समंदर नहीं, अब क्या कीजे
दिल आपका है यूनान के मानिंद, मगर
क़िस्मत सिकंदर नहीं, अब क्या कीजे
मुतमइन कैसे रहूँ मुर्दों के शहर में
मैं कोई क़लंदर नहीं, अब क्या कीजे
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-सन्तोष दौनेरिया
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बमुश्किल बटोरी थीं चंद शिकायतें तिरी यादों के मोहल्ले से,
नज़र ज़रा इधर उधर क्या हुई वो उड़ निकली दरीचे से..-
यादों के कब्रिस्तान में, आंसू ही कलंदर है..
कुछ तो बाहर दिखे, कुछ दिल के अंदर है..-
मार्तण्ड सरीख़ी आँखों में,
दो बूँद समंदर लाया हूँ,
खा-खाकर ठोकर जीवन में,
बन मस्त कलंदर आया हूँ।
यायावर तेरी गलियों का,
अब घाट किनारे डेरा है,
छा पर्णकुटी इक खुशियों की,
बस कल ही अंदर आया हूँ।
संतों की संगति करता था,
फिर गान भजन आधार बने,
पर्वत- पर्वत, नदियाँ- झरने,
सब खोज पुरंदर पाया हूँ।
दो बूँद समंदर लाया हूँ...
बन मस्त कलंदर आया हूँ...-
कोइ ज़मी जीतकर सिकंदर हो गया ...
कोई खुद को जीतकर कलंदर हो गया..
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आशिक़ मजनु दिवाने सभी
माशुका के साथ मयकदा में गए ;
कुछ थे कलंदर हम जैसे भी
जो खुद ही चलके सहरा में गए !
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तुझ में घुल जाऊं मैं नदियों के समन्दर की तरह।
और हो जाऊं अनजान दुनिया में कलंदर की तरह।
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