दोष देते रहे वो 'चांद' को हमेशा कि कभी अपना नहीं हुआ..
वो लोग जिन्होंने 'आसमां' बनने की कभी कोशिश भी नहीं की।-
सबसे पवित्र हृदयों को सदेव
पत्थर समझा गया ......
एक दिन वह सच में पत्थर बन गए
ओर चुन लिये गए
'ईश्वर' कि मूर्तियों के लिए ...।-
ना ही वह लोग...
जो छोड़ चुके हैं शहर तुम्हारा।
ना ही वो...
जिन्होंने तय कर ली कई देशों की दूरी ।
और वो तो बिलकुल नहीं...
जो रहते हैं अब 'आसमां' में |
नहीं.. इनमें से कोई कहीं नहीं गया
सभी हैं बस... एक "याद" की दूरी पर ।
दूर चले जाने का केवल एक मतलब हैं..
"मन से निकल जाना हैं "
जो मन से चले जाते हैं ..
वो सामने हो.. फ़िर भी कभी नज़र नहीं आते हैं ।-
शाम के वक्त
जब उजाला चल पड़ता हैं
पश्चिम की ओर
कुछ किरनें जब झांकती हैं क्षितिज से
उस वक्त घंटों बिताता हूं मैं ...
अपने घर की छत पर ।
लेकिन..मैं सूर्यास्त नहीं देखता ।
मैं निहारता हूं ....
घोंसले की ओर लौटती छोटी चिड़िया को ।
किसी को जाते देखने से
ज़्यादा सुकून देता हैं मुझे
किसी को लौट कर आते हुए देखना ।-
चांद , तारा, आसमान नहीं....
तुम किसी के लिए "धरती" बनना ।
( Read in caption )-
रात के स्याह अंधेरे में टिमटिमाते तारों सी
कुछ उम्मीदें चमकती हैं आंखों में मेरे....-
बूढ़ा होता बरगद चाहता हैं ...
शाखाओं से झूलते बच्चें..
कभी "बड़े" ना हो ।
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