ज़िन्दगी की कश्ती चलती रही.. ख़्वाइशों के अंतहीन साग़र पे
और हम बूँद-बूँद कर बहते रहे.. उम्र की छलकती गागर से,
हैराँ हूँ...के जिस तन में राम-रहीम बसे.. उस तन की कोई क़दर नहीं
और जिस पत्थर में कोई रूह नहीं.. उसे लोग पूजते हैं बड़े ही आदर से,
सुनाई दास्ताँ जब मुहब्बत की.. तो जुबाँ पे चर्चे तो सारे उसके थे
उफ़्फ़.. हम अपनी ही कहानी में.. कितने रहे नदारद से,
अब कैसे कहें तक़दीर से.. के हमें कम.. क्या-क्या मिला
दो नयनों के हिस्से में.. आँसू तो हर बार बराबर थे,
ज़िन्दगी की कश्ती चलती रही.. ख़्वाइशों के अंतहीन साग़र पे
और हम बूँद-बूँद कर बहते रहे.. उम्र की छलकती गागर से,
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