उम्र की ये दुश्वारियां तो रोज़ बढ़ती जाएँगी
वक्त रहते ही मोहब्बत कर गुज़रना चाहिए
जंग न लग जाये यारों इस दिल ए नादान को
रंगो- रोगन इश्क का थोड़ा तो चढ़ना चाहिए
उम्र निकली जा रही है फ़ाक़ा मस्ती में यूँ ही
इश्क में पड़कर किसी के काम आना चाहिए
एक दिन मर जायेगा गुमनाम सा ही तू यहां
नाम तेरा भी जुबां पर लोगों के आना चाहिए
है जवां वो ही के यारों इश्क जिसने कर लिया
रोग ये लग जाये तो, न फिर मुकरना चाहिए
वो हसीं मिल जाएगा तुझको ज़रूरी तो नहीं
हर हसीं चेहरे पर थोड़ा थोड़ा मरना चाहिए-
अब तो बस,
सो जाना है इसे।
की मुलाज़िम है!
अब बहुत रतजगा हो गए।
मन के,
थक चुके हैं बहुत।
रूठना लाज़मी है!
की नींद भी अब थक गए।
कतरा कतरा पिरोया,
है अरमानों को पसीने से।
प्यास बहुत है!
आ आगे बढ़ चले टूटे अरमा ये कह गए।
हाँ हँसते हँसते,
चुप हो जाना है इक दिन।
की खबर मिली है!
ये रात भी अब जागते जागते सो गए।-
तमाम उम्र दिल को एक उसी से प्यार रहा,
इंतज़ार... इंतज़ार... इंतज़ार... रहा!-
पूरी एक उम्र लगती है मियाँ
किसी से बे-हद, बे-पनाह, बे-ग़रज़
शिद्दत भरी मोहब्बत होने में
और तुम कहते हो
मोहब्बत तो बस यूँ ही
एक नज़र में ही हो जाती है
- साकेत गर्ग 'सागा'-
ततावुल ना किया कर...तू अपने हुस्न पे इतना,
उम्र चढ़ेगी...तो ये उतर जाएगा...
सुना है तेरे शहर में...चूहे बहुत है...
कोई आशिक़ बनकर...कुतर जाएगा ।😍😂😘-
जुर्म मोहब्बत किया मैंने उसने उम्रकैद सुना दिया
मैंने भी अपने दिल के सलाखों में उसे कैद कर लिया ।-
टालने से कहाँ.. टल रही है
रफ़्ता-रफ़्ता.. उम्र ढल रही है,
दिल का आलम कुछ यूँ है आजकल
जैसे धूप.. पानी में जल रही है,
यूँ ही बैठे-बैठे भर जाती हैं आँखें
कमी कुछ तो.. खल रही है,
अभी तो वो भी नहीं मिला है मुझको
ज़ुस्तजू.. जिसकी मुझे हर पल रही है,
और कमबख़्त...
अब मौत माँगती है मुझसे अपना हिस्सा
मेरी.. ज़िन्दगी से बहस चल रही है!-
गुजरते आज देखा ख़ुद को
जब आईने में पड़ी नज़र,
ख़ुद को ही पहचानने में
लग गयी सारी उम्र,
चेहरे से मेरे ही मैं
यह बिछुड़ गया किस क़दर,
आंखों से निकल कर
जो थम गया होठों पऱ,
ईक आँसू बता गया
सारी ज़िन्दगी का सफ़र..!-
ज़िन्दगी की कश्ती चलती रही.. ख़्वाइशों के अंतहीन साग़र पे
और हम बूँद-बूँद कर बहते रहे.. उम्र की छलकती गागर से,
हैराँ हूँ...के जिस तन में राम-रहीम बसे.. उस तन की कोई क़दर नहीं
और जिस पत्थर में कोई रूह नहीं.. उसे लोग पूजते हैं बड़े ही आदर से,
सुनाई दास्ताँ जब मुहब्बत की.. तो जुबाँ पे चर्चे तो सारे उसके थे
उफ़्फ़.. हम अपनी ही कहानी में.. कितने रहे नदारद से,
अब कैसे कहें तक़दीर से.. के हमें कम.. क्या-क्या मिला
दो नयनों के हिस्से में.. आँसू तो हर बार बराबर थे,
ज़िन्दगी की कश्ती चलती रही.. ख़्वाइशों के अंतहीन साग़र पे
और हम बूँद-बूँद कर बहते रहे.. उम्र की छलकती गागर से,
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