दिया है जो जख्म कुछ अपनों ने, अब वो मिटता नहीं है।
नकाब नहीं चेहरे पे सब कहते, पर वास्तविकता नहीं है।
कुछ अनकहे राज खोलनें हैं, इन मतलबी रिश्तों के
कलम मेरा सब जानता है, पर कभी लिखता नहीं है।
खरीदने आये हो मुझे तुम, ये चंद मुनाफे गिनाकर
ये ईमान मेरा पुरखों का है, बाज़ार में बिकता नहीं है।
यूँ तो "कहने के लिये", हर कोई साथ खड़ा हैं मेरे,
जब दर्द आता है हिस्से में, तो कोई दिखता नहीं है।
क्यूँ करने लगे हो बुराइयाँ, उस शख्स की अब भरी महफ़िल में
जलन हो जिसे तरक्की से गैरों की, वो इंसान अब टिकता नहीं है।
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