आबरू
वो ज़िंदा लाश! अपने कटे जिस्म को घर लायी थी
आँखों में सूखे आँसू और लिबास में दाग़ लगा कर आयी थी
वो दाग़- अब जो नासूर जख़्म बनने वाला था
वो दाग़- अब जो हर किसी का सवाल बनने वाला था
वो दाग़ जिस पर चार लोग चार बात बनाने वाले थे
वो दाग़- अब जो उसके वजूद का फैसला करने वाला था
आवाज़ खो कर आयी थी वो
खौफ़नाक मौत का मंज़र देखकर आयी थी वो
क़त्ल हुआ था आज उसमें छिपे हर 'औरत' का
आज जिस्म नहीं, रूह की लाश लेकर आयी थी वो
पर हमने क्या किया?
माँ बनकर उसे कलेजे से लगा तो लिया
पर लोगों के डर से, उसके दाग़ को छिपा लिया
बाप ने जिसे अपनी शान,अपना ग़ुरूर माना हमेशा
आज उसके दर्द को, बदनामी का सबब मान लिया
अरे! हम वो दोस्त, वो रिश्तेदार है जो कल तक उसके साथ थे
आज हम ही दूरी रखेंगे। हम ही राय देंगे। हम ही बात बनाएंगे।
मिलेगी सज़ा गुनहगारों को, वकालत चलती रहेगी अपनी जगह
पर हम वो समाज है, जो अपनी 'बेटी' को चाल-चलन का नया पाठ पढ़ाएंगे
हमदर्दी बेहद होगी हमें, पर बेग़म बनाकर अपनायें कैसे?
'आबरू उसकी आबरू कहाँ', इस सोच को अब छिपाये कैसे?
माना दिल पसीजता बहुत है हमारा, उसके दर्द में
पर महज़ दिखावे के ख़ातिर, उसे घर की इज्ज़त बनाये कैसे?
असल हैवान तो हम है, हममें शर्म कहाँ?
हम वक़्त-बेवक़्त नाप-तोल करते रहे, उसके दर्द का
हम तराजू लिये खड़े रहे, उसे तोलने हर मोड़ पर
और उसकी आबरू, हमारे सवालों में घिरी रही हमेशा। (गीतिका चलाल)
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