गुजरा वक़्त कुछ साथ में तो ये समझ पाया मै,
जिसे समझा था कीमती वो तो बस महंगा ही निकला।-
ये.. मैं ही जानता हूं, कि.. कैसे
इस दिल से निकाला था तुझको
बड़ी मुश्किल से संभाला था खुद को
मैं तो लगभग मर ही चुका था,
मोहब्बत में संगदि़ली को पाकर
अचरज़ तो इस बात का है,
कि तूने कैसे संभाला था खुद को।🙄🥺।-
क्या कहें हम आपसे ,बस सहमे से रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में वह बह गए।
इस तलक जो आस थी , वो ही मुझपर रह गई,
कब तलक निभाता मै, जो खुदपर ही मर गई।
था तो अचरज इस तरह का, कि वो मेरी मेहमान थी
था तो बस अचरज ही, कि वो मेरी भगवान थी।
इस असमंजस का पल, कुछ ही व्यतीत था
कुछ न मिल सका, ये दुःख बहुत अतीत था।
दिन तो किसी तरह , हलचल में गुजरता रहा
रात के अंधेरे में, मन मेरा मचलता रहा।
हमने फिर लाइट जलाई, डायरी लेकर पड़े
चार-छः पुस्तक लिए और फिर उसको पढ़े।
मन लुभाने के लिए, अब कुछ मुक्तक लिखे
फिर उसे पढ़ते-पढ़ते , बिस्तर पर यूं पड़े ।
ग़म से उभरे न थे कि, भाव में बहने लगे
जिंदगी क्या हार गयी , इससे डरने लगे।
डर से इस जिंदगी को, हम यूं हारते रहे
तो इस जीवन को हम, अभिशाप में ढालते रहे।
इस तलक दुखड़े को छोड़ो और आगे तल बढ़ो
जिंदगी है चार दिन की मौज-मस्ती में रहो।
रवि एस.-
कौन समजेगा यहाँ तेरे मेरे दिल की बात
सील गये है होंठ अब नहीं कोई अचरज की बात
ज़हर के घुट बहोत पी चुकी हूँ मैं प्यार की राहों में
बस अब रहने दे मत कर तू भीगी चाहतों की बात
चाहतों के पौधे सूखे पड़े है यहाँ राहों में
नहीं मिलेगी तुझे चाहत मत कर दिल्लगी की बात
अंधकारमय बन गया है निर्जीव जीवन मेरा
अंधकार में अब मत कर तू दीप जलाने की बात
पास है अब मेरी मौत की घड़ी अफसोस मत कर तू
अस्त होते सूरज के सामने मत कर ज़िंदगी की बात
जितनी भी जीये है लम्हे ज़िंदगी के चाहतों में है बिताये मैंने
जाते जाते अब मत कर तू नफ़रत में लिपटे रिश्तों की बात
दिल और मस्तक दोनों ही झुक रहे है तेरे "शगुन "
आखरी घड़ी में अब खुदा की बंदगी की कर तू बात-
~ खाने के ढंग - भाग 7 ~
सफेदपोशी भी तो खाते हैं
छीन -झपट के खाते हैं
तारीफ कर कर के खाते हैं
जनता से लेते हैं जनता के लिए
लेकिन, फिर भी खाते हैं अकेले बैठ कर
बड़े दयालु होते हैं ये
हिस्सा भी देते हैं ,छोटे मोटे पात्रों को
यह अभिनय भी करते हैं
तभी तो इतना खाते हैं
मुझे खरीद दो
एक सस्ता सा तरीका , जीवन जीने के लिए ....
इन सफेदपोशियों की अलग-अलग कंपनियां हैं
अलग-अलग चिन्ह ...
कोई तो डरा डरा कर खातें हैं
तो कोई पिद्यला कर खाते हैं
ना जाने किस डिटर्जेंट का उपयोग करते हैं
एक भी दाग नहीं दिखता निवाले का
या शायद कोई निवाला छूटता ही न हो .....
दूर से ही चमकते हैं
हाथ जोड़े , कांतिमय ,तीक्ष्ण मुस्कान के साथ
न जाने कहां से आ जाती है ......
मुझे खरीद दो
एक सस्ता सा तरीका , जीवन जीने के लिए ....-
ये ज़िंदगी भी आजकल किन ख़्यालों में खोई रहती है
अब भी सांसें हैं कि थमने का नाम नहीं लेती हैं
हर वक़्त गैरों के बीच रुसवा करती है
फिर भी मुस्कुराने के लिए कहती है
ख़ामोशी से सारे काम कर देती है
और पीछे निशान छोड़ देती है
गलतियों को याद दिलाती है
ये कमबख़्त खुल कर रोने भी नहीं देती है
ना जाने किस बात के लिए सज़ा देती है
जब कुछ समझ नहीं आता फिर क्यूं समझाती है-
मलाल तो नहीं है हमें भी ।
बस अचरज सा होता ही ।
क्या दो पल का पाना।
और पूरी उम्र का खोता है।-
अपनी बातों से हमें अचरज में डाल दिया करती हो!
और हमें यह बात बहुत पसंद है।-
नेह तुम्हारा... ।
शाम का ढ़लना,
दीपों का बलना।
संध्या की पवित्र आरती
नभ का रंग बदलना
कोई अचरज...
कोई अचंभा,नहीं है ये...
(संपूर्ण रचना
अनुशीर्षक में)-