Sushma sagar   (SUSHMA SAGAR...✍️)
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Joined 19 February 2020


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YESTERDAY AT 10:49

बचपन।

यूं ही ज़रा सा झुक कर
उठा लीं मैंने नीचे गिरी हुई
अमलतास की
दो फलियां ।

ज़रा सा हिलाईं तो
छनछनाने लगीं कीकड़ के सूखे बीज पड़ी
छीमी की तरह...

बचपन ने स्पर्श किया मुझे
मैं ने जी लिया
फिर बचपन ।।

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YESTERDAY AT 10:01

प्रेम और प्रकृति।


हाँ...
यह भी शाश्वत सत्य है कि...
प्रखर वेगों का चरम्
स्थिरता ओं का जनक है ,

....जैसे तीव्र
बे काबू
बवंडरों के उपरांत
शांत...स्थिर ...
ठहरी हुई हवाएं ।

(संपूर्ण रचना
अनुशीर्षक में)

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1 MAY AT 9:28

झोंपड़ियों में रह कर वे‌ महल बनाते हैं।
फुटपाथों के‌ बाशिंदे, शीशमहल बनाते हैं।।

होड़ न हौंस कोई अखबारों में आने की।
पर्दे के पीछे से जीवन सहल बनाते हैं।।

मैंने देखी है उन आंखों की वीरानी भी।
चुप होंठों से वे ज़िंदा ग़ज़ल बनाते हैं।।

हाथों को सिरहाने करके सोते सुकून से।
इन औजारोंसे,जन्नत की नक़ल बनाते हैं।।

वक्त बेचते हैं,'सागर'लहू मुफ़्त में लो तुम।
ईमान के पक्के,ये सौदा असल बनाते हैं।।

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1 MAY AT 8:55

मज़दूर दिवस।

ज़िंदगी के कारखाने में, है मज़दूर हर आदमी।
वक्त के हाथों में बंधकर,है मजबूर हर आदमी।।

कैसी बीत रही है,क्या बतलाऊं जानां तुम को।
कि तलाश-ए-सुकूं,है थककर चूर हर आदमी।।

मिल जाते हैं चौराहे हर दोराहे पर ख़ुदा यहां।
है मग़र आदमी से मीलों दूर, हर आदमी।।

रोज़गार के जैसा दूजा रब़ कोई नहीं है।
इसी मौला की बदौलत है मशहूर हर आदमी।।

तुम मनाओ दिन ,मैं अपना ख़ुदा मनाता हूं।
ये रूठे जो 'सागर', है बे-मक़्दूर हर आदमी।।

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30 APR AT 11:02

अपनी क्षमताओं के
चरम को जानो,
...मान करो।

साथी!
जीवन है अद्भुत एक यात्रा
इस का,
...सम्मान करो।।

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30 APR AT 10:49

खनिकर्म।

अक़्सर ....इन के नीचे बैठ
अनुभूत की है मैंने सतयुगी
....और कलयुगी सीता'ओं की दो धार हुई
मनःस्थिति भी,

संभवतः कभी तो‌ डिगे होंगे उनके विश्वास
...भले ही मन में ही सही
जिसकी कोई भी सिलवट
या छाया...
प्रत्यक्षतः दिखने न दी हो...
स्त्री मन की गहराइयों ने,

समय ने कभी तो छला होगा
सतीत्व ...??

(संपूर्ण रचना अनुशीर्षक में)

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25 APR AT 10:54

हुंकार भरो।

दर्द है तो चिल्लाओ इतना कि सत्ता के गलियारे जाग उठें।
मदहोशी की नींद में सोएं , ये नींद के मारे जाग उठें।।

उठो बहुत पी चुके हलाहल जीवन का,अब मौत की बारी है।
पत्थरों की मोहब्बत में पड़े ये गली-मोहल्ले-ओसारे जाग उठें।।

नदी छोड़ बैठी है लकीर पुरानी,अब रास्ते नए तलाशती है।
हुंकार भरो जो तुम साथी दरिया -पर्वत ये सारे जाग उठें।।

हाथ में देकर हथियार कहते हैं ख़ुदा बचाओ अपने‌- अपने।
आग लगा सेंकते रोटी,ऐसों के दुर्दिन के सितारे जाग उठें।।

आवाज़ दे कहो कि 'जागो ओ तख्त- ओ- ताज के‌ दीवानों'।
ख़ास उन दीवार-दर-दरीचों के मखमली किनारे जाग उठें।।

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25 APR AT 9:38

देख रहा हूं समन्दर आंखों के, मदहोशी के आलम में।
इश्क़ में डूबे तो 'सागर' दरियाएं भी किनारा लगीं।।

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25 APR AT 9:23

साहिलों पे रखी रह जाती है सब बोलों‌ की कसीदाकारी।
कि 'सागर' की ख़ामोशियों को भी, बातें आती हैं बहुत।।

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25 APR AT 9:10

क़लम।

थाम कर हाथ मेरा जाने किस ओर ले जाती है कलम।
होती आईना, कभी रंग ज़माने का दिखाती है कलम।।

इस आदमी को,आदमियत की भी क़द्र होनी चाहिए।
कहकर हौले,देख मुझे,जाने क्यूं मुस्कुराती है कलम।।

सच और फ़रेब में है फ़र्क भी‌ तो‌ ज़्यादा नहीं 'सागर'।
आंखों देखी भी कभी -कभी, ग़लत बताती है कलम।।

बे़गुनाह को सजा न भले सौ गुनाहगार बच जाएं।
सोच ये सोचती सौ बार, तब सजा‌ सुनाती है‌ कलम।।

भेड़ की शक्लों में भेड़िए है इंसान भी जिंदा मग़र।।
कोना कोई मुलायम मन का ढूंढ ही लाती है क़लम।।

धर्म गुनाह है न मस्ज़िद की शहतीरे गुनाहगार।
मुकामहै इक सुकूं का ठहरिए,राह दिखातीहै कलम।।

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