Sushma sagar   (SUSHMA SAGAR...✍️)
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Joined 19 February 2020


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Joined 19 February 2020
20 SEP AT 12:09

अजब चाल दुनिया को चलते, देख रहा हूँ l
हर लम्हा, इसे रंग बदलते देख रहा हूँ ll

कैसा ज़हर मिलाते हैं आसमानों मेंl
बादल, रंग - बिरंगे, हल्के, देख रहा हूँ ll

जानां, बीत रही है मुझ पर जो - जो l
ख़ुदही,ख़ुदकी आग में जलते, देख रहा हूँ ll

जब से, ज़ज्ब हुआ है वो भीतर मेरे l
बाहर, ख़ुद को, निकलते देख रहा हूँ ll

हाँ, मुश्क़िल है अब, उस को समझानाl
कि नादां बच्चे सा, मचलते देख रहा हूँ ll

कि अक़्सर, नींद बहुत आती है 'सागर'l
आँखों में ,ख़्वाब इक पलते, देख रहा हूँ ll

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18 SEP AT 10:21

बाद हमारे l

कल, आदमी की हसरतों को पानी होना हैl
इक न इक दिन हम सबको कहानी होना हैll

अभी जवानी बीत रही है रफ़्तार ओ मेंl
बाद उम्र इस की भी धीमी रवानी होना हैll

है ग़ुरूर में क्यूं गुमान में क्यूं इतना आदमीl
बाद हमारे हम को भी एक निशानी होना हैll

अपने हक़ में जोड़ रहा है जाने क्या-क्याl
ऊपर तो खाली हाथ कोर्ट-दीवानी होना हैll

बाद हमारे रह जाएंगे चंद अफ़साने बाक़ीl
यासे'सागर' मरासिम इक रूहानी होना हैll

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18 SEP AT 9:03

अभी अंत नहीं है!

ओ नन्हीं भोली चिड़ियाओं
तुम गाओ उत्सव गीत,
तितलियों तुम हो निडर उड़ो
फ़ूलों पर,

कि जीवन दायी सूरज
अभी बुझा नहीं हैl

अभी बिखर रही हैं किरणें
अभी महक रही है उर्वरा मिट्टी
अभी जीवन के सब बीज़ साबुत हैं,

ओ बचीकुची मधुमक्खियों
तुम जमा करो मकरंद
कि अभी जीवन का अंत नहीं है l

(शेष रचना अनुशीर्षक में)

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16 SEP AT 12:50

स्त्री की कलम से...।


...वह लिखती है
उसके प्रफुल्लित मन के संवेग ,
वह कुरेदती है
उस के उर में रखी हुई
व्यथाएं ।

वह प्रेम से सहलाती है
अपनी सी ही प्रतीत होती
उस की पीड़ाओं को ,

बंधाते हुए ढांढ़स,
वह चुपके से रख देती है
एक ...चिंगारी भी वहां,
जिस में स्वाहा हो सकें
स्त्री के सब दुःख।

(संपूर्ण रचना अनुशीर्षक में)

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11 SEP AT 21:11

साऊथ दिल्ली,
दिनांक ११ सितंबर,
२०२५.

प्रिय...
....सुबह पुरवाई ने बालों को छेड़ा हौले से ...तो सहसा तुम बहुत याद आईं , खुले बाल लहराती हुई ...बिना गांठ वाले मन की... स्वच्छंद ... ज़रा ज़रा सी बात पर खिलखिलाहट के मोती बिखेरती हुई...
ड्राइंग की टीचर'निखत मैडम'की भोली सी...मासूम सी लड़की।


(पत्र का एक अंश... संपूर्ण पत्र अनुशीर्षक में)

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11 SEP AT 8:40

प्रेम का माप।

तुम पूछ बैठते हो अक़्सर
यूँ ही हँसकर ,
तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम का
वज़न
व्यास।
मैं कहती हूँ कि,
कभी तोला नहीं
कभी मापा भी नहीं।
परन्तु...
देह की अरबों कोशिकाओं में
किसी दुसाध्य संक्रमण की तरह
दिन ब दिन
विस्तार ले रहा है
तुम्हारा प्रेम।

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10 SEP AT 23:07

प्रेम!बंजर भूमि में उगा
अलबेला ,सुगंध - सुमन है।

अंकुर अंकुर जोड़ बना
मधुबन है।

तेज़ बवंडर में
ठहरा रहता है,

शून्य में लहरा कर चलना
इसका चलन है।।

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10 SEP AT 11:29

दुनिया दहशत में है मग़र हम मज़े में हैं।
सेंक रहे हैं हाथ, महफूज़ वजह में हैं।।

उसने कहा अब ख़त्म होने को है सब।
ज़ौक-शादमानी,सब कुफ्र-शफ़ह में हैं।।

ख़्वाहिश -ए- ग़ैब गुनाह कर रहा है।
'सागर'आज आदमी,यूं तौर-तरह में हैं।।

सोचे न पहुंचेंगी ये आग मेरे दामन तक।
हर आदमी यकसां, कुज -कुलह में है।।

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10 SEP AT 10:50

चलो‌ अब कुछ,काम किया जाए।

निभ गईं ख़ूब मोहब्बतें,चलो अबकुछ काम किया जाए।
ख़्वाहिश- ए- बेहिश्त, ज़रा सा, कुछ आराम दिया जाए।।

फ़िक्र- ए- ज़माना हम न हों, वो रहा है मेरे ज़िक्र में सदा।
दिलो - ज़ेहन, रहने वालों का ,कुछ एहतराम किया जाए।।

जवां लहू जो उबल रहा है कहो उसे कि ग़म खाए ज़रा।
आदमियत को यूं भी न 'सागर' शैतानी नाम दिया जाए।।

नौरंगी लिबासों में चंद बनके फ़क़ीर फिरा करते हैं यहां।
ऐ आरज़ू- ए- अमन, तेरा कातिल सरेआम किया जाए।।

ये हिंद रहेगा कल न मुल्तान के ही निशां मिलेंगे तुम्हें।
ऐ लुटी कुदरत के तमाशाई, चल, कोहराम किया जाए।।

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10 SEP AT 8:29

प्रेम।

प्रेम! रेशमी तंतुओं से बुनी,
अटूट...रंग-बिरंगी...

उलझी.. सुलझी, परन्तु...
सरल सी एक गिरह है,

जिसे बुनता है
वह अमर जुलाहा।

यह समय की मौन साध है,
एक गहरा सा सन्नाटा है।

जहां सदियों की थकी रुहें
विश्राम लिया करती हैं।।

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