कभी मेरी कभी उनकी सुनते हैं...
हर वक़्त अपना पहलू बदलते हैं...
समय के साथ साथ पन्ने पलटते हैं...
अंदर विष, होठों पर अमृत लिए फिरते हैं...
कभी दूसरो को, कभी अपनों को डसते हैं...
यहां लोग हर क्षण लिबास बदला करते हैं...
कभी सुंदरता, कभी आकर्षण पर रीझा करते हैं...
कभी खयाती, कभी प्रसिद्धी के लिए लड़ा करते हैं...
यहां लोग हर क्षण लिबास बदला करते हैं...
कभी गुमसुम, कभी मुस्कुराहट लिए फिरते हैं...
ज़माने के गमों से खिल खिला कर सामना करते हैं...
कभी आगे जाने की होड़, कभी पीछे रह जाने पर निराश हुआ करते हैं...
यहां लोग हर क्षण लिबास बदला करते हैं...-
कैंची ज़र्ब लगाती है
अंग अंग काटा जाता है
सुई चुभोई जाती है
फिर धागा टांके लगाता है
तब जाके कोई पोशाक बनती है
तब जाके कोई कपड़ा लिबास कहलाता है
सहिफ़ा— % &-
परिवार को ढोता हैं पर उसको कभी उदास नहीं देखा
अपनों के लिए उसके दिल से बड़ा आवास नहीं देखा
जनाब कमाने वाला मर्द होता है लेकिन मैंने कभी भी
उसके बदन पर एक औरत से महँगा लिबास नहीं देखा-
काला लिबास का मुखौटा पहने
कब तक भाग पाओगी
गवाही तेरे अपने दे रहे हैं
अपराधी खुद को या
कसूर इन हाथों का बताओगी
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Kisko kya mila iska koi hisaab nahi
Tere pass ruh nahi mere pass libaas nahi.....-
लिबास
ये जो ज़रज़री लिबास
पहन के मुझे धरती पे
उगाया है, ऐ मेरे रब़
जाने क्या तेरे मन में
आया है, हर चीज
ज़रज़री है यहां, एक
को पकड़ो दूसरा चला
जाता है, दूसरे को
पकड़ो तीसरा चला
जाता है, समझ में नहीं
आता कि में दौड़ का
हिस्सा हूं या दर्शक हूं,
मुझे ओर अ़क्ल की
जरूरत है मेरे मालिक़,
की तुझे समझ सकूं,
कर सकूं वो काम
जिसके लिए बनाया है।-
समझा ना कोई तसव्वुर के फ़रेब-ए-रंगी को
शबिस्ताँ नया लिबास बदल के आयी है-
बस इतनी सी इल्तज़ा है मेरी
कि तेरी मोहब्बत को लिबास बनाकर ओढ़ लूं-
लिबास पर पैबन्द जरूर लगे है जनाब !
लेकीन मेरे विचारों पर नहीं जो औरो की तरह दो पल में बदल जाते है।-
कब से इसे पहन कर घूम रहा हूँ ,
आख़िर कब तक पहनना होगा ,
आख़िर कब तक
जब तलक तू चाहेगा
पहनना पड़ेगा ,
रहना पड़ेगा पहन कर ,
जब तू चाहेगा इक पल में ,
खींच लेगा इसे ,
एक कतरा भी नही रहेगा पास मेरे ,
ये बदन मेरा ,
रूह का लिबास ही तो है ,
जब तू चाहेगा उतारना होगा-