जालिमों का शहर है ये जनाब,
यहां लोग सीने से लगाकर के दिल निकाल लेते है-
सितमग़र तुमसे मैंने वफ़ा की उम्मीद कब की थी।
तू ज़ालिम कितनी है मेरी बस जुस्तजू इतनी थी।-
वो मुस्कुराहट भी किस काम की...
जो दर्द को छुपा ले !
वो दर्द भी कैसा...
जिसे बया ना किया जाए !
ये जमाना बहोत ज़ालिम है जनाब !
यहा लोग आपके आंसू नहीं...
उसके पीछे छिपी वजह मैं...
दिलचस्पी रखते है !!-
कुछ पल केलिए हमने अपने सपनों को समेट ने कि
क्या सोचा!!
जालिम जमाना तो हमारे हातो में मेहन्दी रचाने का ख्वाब
देखने लगा||
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बदल रही हूं मैं भी धीरे-धीरे जमाने की तरह
कोई बदलाव दिखे अगर मुझ में तो ताज्जुब न करना।।-
मंसूबे उनके कामयाब नहीं होंगे
वो जिंदगी में सेहतयाब नहीं होंगे
जो जलते है दूसरों की तरक्की से
वो ज़िंदगी में कामयाब नहीं होंगे
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कल की दुनिया मैं और आज की दुनिया में बहुत फार्क है कल किसी का भला करता तो दुआ देते थे और आज जिस्का भला करो तो साला वही बुरा कर जाते हैं
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ना दुआं करें ना फ़रियाद करें,
जब भूल ही गए वो हमें तो
हम बेवज़ह उन्हें क्यों याद करें,-
कश्ती भी खुद की है खुद ही की पतवार है,
फिर भी ठहरे हो इस बहते पानी (जीवन) में क्या किसी मुसाफिर का इंतजार है?
...अगर है सच में इंतजार किसी के आने का, तो फिर मत कर और इंतजार क्योंकि ऐतबार नही है इस जमाने का।-