बस गई है तू मुझमें...
सुगंँध मेरी, तुझसी आती है...
इत्र कोई भी लगा लूंँ मैं...
खुशबू तो तेरी ही आती है...-
मुझ से आती तेरी महक को मैं...तेरे 'इश्क के इत्र' का नाम देना चाहता हूँ...
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तुम और मैं
संग केतली
फूलों वाली,
फिर लाई है
शाम गुलाबो
वाली,,,,,,,
बाद मुद्दत के,
महकती बातें
होंगी,,
इत्र-ऐ-जज्बात
से रुहों के
प्याले भरेंगे ,,,
जिंदगी को,,
एक बारी
फिर से
खुशबुओं के
कारोबारी
मिलेंगे,,💕💕-
ए-ज़िंदगी
इतराती क्यों है, ए-ज़िन्दगी...
थोड़ा हमारा भी ख्याल कर!!
जी रहे हैं तुझको तो...
यूँ ना बेवजह के सवाल कर!!
करेंगे तेरा भी हिसाब...
एक दिन ए-ज़िंदगी
थोड़ा वक्त आने का इन्तज़ार कर!!
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__तुम मुहल्ले से निकलो तो इत्र लगाकर __
__ये खिड़कियां बेताब होती है खुलने को __-
कुचले कितने गुल जाते तब जा कहीं महकता इत्र है,
जाने कितनी रूहों का बोझ, जिस्म पर ढोते हैं लोग।-
बहारें मचलने लगी और इत्र जैसी हर एक गली हो गयी
फ़िज़ा में उठते कसक को इनसे बड़ी तसल्ली हो गयी।।
निगाहें मिली हमारी और इश्क़ खिल कर गुलज़ार हुआ
ओ जाना..तू मेरा पुष्पा और मैं तेरी श्रीवल्ली हो गयी।।-
बेबाक मोहब्बत पे इतना क्यूँ इतरा रहे हो,
वो सनम था ही बेवफ़ा तुम क्यूँ मरे जा रहे हो।-