PRIYANKA CHANDRA  
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Joined 22 July 2020


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Joined 22 July 2020
18 HOURS AGO

एक जन्म और दूसरे मृत्यु ही
सार्थक हैं इस ब्रह्माण्ड में,ये
पुनर्जन्म एक कल्पना मात्र है,
अगर जन्म की पुनरावृत्ति होने
लगे तो हमें कर्मों के अनुसार
जो फल मिलता है वह कभी भी
नहीं मिलता, ज़िंदगी स्वयं के
अनुसार चलती अपरिवर्तनशील।।

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5 MAR AT 12:28

जहां में ये रंज,ये द्वेष,ये नफरत क्यों है
सबके बीच में यहां झूठी सोहबत क्यों।।

पानी से ज्यादा हैं गंगाजल की शीशियां
गरीब के रक्त से बढ़कर दौलत क्यों है।।

आखिर क्यों रंग बदलने लगा है इंसा
सफेद पोशाक में ही शोहरत क्यों है।।

कहीं रखी सड़ रही अनाज की बोरियां
तो कहीं भूखे पेट पर तहमत क्यों है।।

क्यों बर्बाद हो रही आंसु से सींची फसल
अन्नदाता के हिस्से इतनी ज़हमत क्यों है।।

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4 MAR AT 11:03

वो दूर क्षितिज में लजाती हुई सिंदूरी शाम
मध्यम-मध्यम सा नभ में पिघलना धूप का।।
मैं हूं और संग है मेरे मकान का शामियाना
चहुंओर मुझे घेर कर बतियाना यूं धुंध का।।
सुबसंत के पीत वर्ण में धरा लिपटी हुई है,
लेकिन है सालता बीत जाना अबकी पूस का।।
गोधूलि बेला में पलकें मेरी जो ऊंघ रही हैं
शायद शब के शै सा गहराना मेरा खुद का।।

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3 MAR AT 22:41

स्त्री ही स्त्री को समझ सकती है
इस बात से मैं पूर्णत: सहमत नहीं हूं
क्योंकि आज तक के अपने जीवनकाल
में मैंने बहुत बार ऐसा होते देखा है कि
एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की सबसे बड़ी
शत्रु होती है,अगर कहीं कोई घर बिखरता
है तो वो सिर्फ और सिर्फ ऐसी स्त्रियों के
वजह से।।

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3 MAR AT 11:23

मुझ में अंतहीन सी खामोशी दफ़न किये
मेरे अंतर्मन को सहस्र से शोर घेरे हुए हैं।।

पग दौड़ते हैं दिन में जानी पगडंडियों पर
आंखों में उनींदी यामिनी के रेले हुए हैं।।

किंवदंतियों को सुनते रहते हैं दो कर्ण मेरे
कोई रेखाएं नहीं,स्थिर बिंदु के मेले हुए हैं।।

सब कुछ है झूठा यहां,एक आईना सच्चा है
सीली कहानियों को हृदय में सिले हुए हैं।।

कहने को तो हर रिश्ते से झोली भरी है मेरी
लेकिन, बहुत रोये हैं हम जब अकेले हुए हैं।।

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2 MAR AT 9:30

वह रोज मेरी नब्ज़ टटोलता है मेरी तबियत जानने के लिए
हालांकि वह वाकिफ है कि मैं उसके इश्क़ में बीमार हूं।।

ऐसा रोग लगा है मुझे तेरे इश्क़ का हमदम कि अब शिफा की चाहत ना रही, एक तेरे सिवा मुझे किसी भी दवा की आदत ना रही।।

FOR U DEAR HUSBAND JI❤️🌹❤️

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1 MAR AT 23:39

मत सुलझा ऐ मेरे मन तू मेरे उलझे उलझे गेसुओं को
मेरे महबूब को इनमें उलझकर जो भटकना पसंद है।।

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1 MAR AT 8:54

बहारें बेहद खफा थीं मुझ से,बंज़र सा ज़िंदगी का नज़ारा था
तुम्हारा आना सदा के लिए मुझे महकता बहार कर गया।।
PRIYANKA CHANDRA ✍🏻
🌹🍁🌹

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29 FEB AT 13:06

कैसे बयां करूं मैं अपने दिल की
उस वक्त की बेहद बेक़रारी को,
जिस वक्त सिर्फ़ मेरा नाम लेकर
जानां मुझे पुकारते हो तुम।।

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28 FEB AT 20:36

नीर के हर बूंद में हमारे समाज के कुछ तुच्छ विचारों से भिन्नता देखने को मिलती है ,ये अविरल धारा के साथ बहता हुआ चला जा रहा,इसका न कोई धर्म है,ना जाति और ना ही कोई देश,ये बेरंग होकर भी स्वयं में हर रंग को समेटे हुए है।।

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