हर दफ़ा मैं बेझिझक हो अपने हृदय को, तह तक खंगालती रही,
फिर क्यों मुझे मेरे मन को, इक दफ़ा खंगालना यूं बोझिल कर गया।।-
नमो बुद्धाय🙏🏻💛
स्त्री विमर्श लेखिका ✍🏻
मेरे प्रेरणास्रोत....बाब... read more
मेरी कविताओं में सदा से ही तत्सम-तद्भव बाग से महकते हैं,
यूं तो कभी इंग्रजी इत्तर शीशियों का मुझे शौक़ रहा नहीं।।-
यहां समग्र ऋतुओं को जीने के लिए सृष्टि सा सार चाहिए,
निस्वार्थ प्रेम दर्शाने वाला स्वतंत्र आकाश सा आचार चाहिए।।
बिजली के थाप पर थिरकते हुए ,अधिकार से बरसेंगी बूंदें,
बस उसे अपने पसंदीदा बादल का वो सोलह श्रृंगार चाहिए।।
-
किसे आरज़ू थी कि शहर की बेचैनियां मिलें मुझे
मुझे तो एक गांव चाहिए था सुकुन से भरा हुआ।।-
कभी फुर्सत से कुछ पल निकालना मेरे लिए
तुम से बातें नहीं, जी भर कर देखना है तुम्हें।।-
अब कौन जाए खुद को रोज हर पहर संवारने आईने में,
बस तुम यूं ही सदा अपनी आंखों से मेरा श्रृंगार करते रहना।।-
मुझे एक ऐसी नदी नहीं बनना है जो समंदर में मिलकर अपना वज़ूद हमेशा के लिए खो देती है बल्कि वह नदी बनना है जिसके जलप्रवाह का इंतजार समंदर को छोड़ सम्पूर्ण सृष्टि करती हो।जिसके आगमन से धरा पर बसंत आये, समस्त जीवों में उल्लास हो, जिसकी मौजूदगी और स्थायित्व हर तरफ ,हर कण में विद्यमान हो।।
-
तू मुझसे यूं रूठकर रुख़सती ना ले
मेरे करीब रह,मेरी पनाहों में तो आ।।
मैं हूं अकेली तू मौसम चार है ठहरा
मुझको बहारें दे,मेरी बांहों में तो आ।।
-
यूं रोज-रोज मैं क्या ही लिखूं तेरे वज्ह को हमदम
मुझे डर है कहीं ये चांद तुझ से रश्क न कर बैठे।।-