अंदर है
समंदर है
खामोश सा
बवंडर है
धोके का
ख़ंजर है
दर्द का
मंज़र है
हो चुका
खंडहर है
दिल अभी
बंजर है
ना कोई
रहबर है
ख़्वाब भी
बेघर है
खामोश रहूँ
बेहतर है
जो हुआ
मुक़द्दर है ©भिमेश भित्रे-
ग़ज़ल:
कुछ भी तेरे बाद नहीं है,
ये तक तुझको याद नहीं हैं
इश्क़ मकाँ है गिरने वाला,
जज़्बे की बुनियाद नहीं है,
तेरा होना हक़ है मेरा,
ये कोई फ़रियाद नहीं है,
दिल जंगल तो बंजर है अब,
गोशा इक आबाद नहीं है,
एक जहाँ में कितनी खुशियाँ,
लेकिन कोई शाद नहीं है,
शेर कहा करता था मैं भी,
पर अब कुछ भी याद नहीं है,
-
महज़ उसके बारे में इतना पता है
कि मुझको दुआओं में वो माँगता है
सदा फूल को ढूंढ लेती है तितली
भँवर भी कली का पता जानता है
तुम्हें देखने को तरसती हैं आँखें
भला क्या तुम्हारा मिरा राब्ता है
सुनो आज फिर एक नादां पतंगा
किसी शम्अ से खेलना चाहता है
जिसे मानता है जहां सारा क़ाफ़िर
तिरे इश्क़ को वो ख़ुदा मानता है
दवा में "सहर" तुम मुझे दर्द दे दो
सुना है ज़हर को ज़हर काटता है-
जो हो मुमकिन तो लाशें छुपा दीजिए
वरना जाकर नदी में बहा दीजिए
कह दो सबसे ज़बानों पे ताला रहे
जो न मानें तो बल से दबा दीजिए
वेंटिलेटर चले ना चले छोड़िए
उसपे फ़ोटो बड़ी सी छपा दीजिए
जैसे ही ख़त्म हो ये कोरोना के दिन
हिंदू मुस्लिम को फिरसे लड़ा दीजिए
है इलेक्शन के पहले ज़रूरी बहुत
फिरसे नफ़रत दिलों में बसा दीजिए-
ढल गया वो दिन जब देखा था तुझे
ढला नहीं वो समाँ जब देखा था तुझे ।।
बेचैनी की बाढ़ और सुनामी सुकूं की
भीग गए एहसास,जब देखा था तुझे ।।
नाराज़गी सारी तेरी दस्तक़ से छू हुई
बेबात ही मुस्कुराये जब देखा था तुझे ।।
चाहते तुझमें तो गुम हो भी जाते मग़र
सलीक़े से पेश आये जब देखा था तुझे ।।
बातों में क्या रक्खा,तेरा होना ही काफ़ी
कुछ कह नहीं पाए जब देखा था तुझे ।।
झूमे बहोत देर तलक तेरे जाने के बाद
ग़ज़ब था मौसम जब देखा था तुझे ।।
पाकीज़गी मतलब अब भी बाक़ी है मुझ में,
आरजू दिल की पूरी हुई जब देखा था तुझे ।।
-
न नींदें हैं न ख़्वाब हैं न आप दस्तियाब हैं
इन आँखों के नसीब में अज़ाब ही अज़ाब हैं
ख़ुलूस की तलाश में हैं ऐसे मोड़ पर जहाँ
मैं भी शिकस्त-याब हूँ, वो भी शिकस्त-याब हैं
अगरचे सहरा-ए-वफ़ा में तश्ना-लब हैं सब के सब
मगर करें तो क्या करें कि हर तरफ़ सराब हैं
अमानतें किसी की हैं हमारे पास अब जो ये
शिकस्ता दिल, चुभन, घुटन, उदासी, इज़्तिराब हैं
न हो सके ख़ुशी में ख़ुश न ग़म में ग़म-ज़दा हुए
हमारी ज़िंदगी के कुछ अलग थलग हिसाब हैं
कहानियाँ, मुसव्वरी, किताबें, फ़िल्म, शायरी
सुकून-ए-दिल की आस में खँगाले सब ये बाब हैं
कभी बड़े ही नाज़ से नज़र में रखते थे जिन्हें
हमीं तुम्हारी आँखों के वो कम-नसीब ख़्वाब हैं-
कभी सुकून कभी ग़म सा लगता है
ये नया साल कुछ हम सा लगता है
बर्फ सी सर्द तो कभी चाय सा गर्म
तेरा प्यार कुछ मौसम सा लगता है
गुज़रा हमारा साल, गुज़र गए हम
ये वक़्त मुझे मातम सा लगता है
दर्द छुप कर बैठा है मेरे अंदर कहीं
क्यों तू मुझे मरहम सा लगता है?
कहाँ है तू और कहाँ है तेरा हर्ष?
मैं ज़्यादा और तू कम सा लगता है-
जब कोई बहुत बोलने वाला व्यक्ति
अचानक चुप रहने लगे
तो उसके पास जाकर
यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं
कि "तुम्हारी चुप्पी का कारण क्या है?"
यक़ीन मानिए
उसकी हथेलियों को
अपनी हथेली में लेकर
कुछ देर चुपचाप बैठना ही
पर्याप्त होगा
~ पूनम सोनछात्रा-
इसी ख़ातिर मैं तनहा रह गया हूँ.
मुलाक़ातों की अब फुर्सत नहीं है.
اسی خاطر میں تنہا رہ گیا ہوں.
ملاقاتوں کی اب فرصت نہیں ہے.-