मैंने उस ख़वाब का इक ख़्वाब देखा है,
तख़य्युल में तबीयत जरा ख़राब देखा है,
गुज़रे वक्त की एक कविता लिख रहा मैं,
मंजिल में अकेले तमसील का रुत देखा है।
लोग कहते रहे मोहब्बत ऐसी है वैसी है,
तस्वीर अधूरी थी फसाकर दिल में फ़क़त दूरी की,
रात के अंधेरे में सितारे बहुत खूब चमकते है,
याद है दामन-ए-इश्क़ तभी तो हमने उसने दूरी की।
कोई हवा कहता है तो कोई पानी कहता है,
समझने वाला इश्क़ को कभी क्या अपना कहता है,
मेरी बिसात क्या नसीब के आगे मिट्टी से जुड़े है,
ज़मीं को पस्त और उस आसमां को मस्त कहते देखा है।
जो बात मुंह में है वो सभी को कह कर देखा है,
हर एक चीज़ खुदा की रहमत से ना तौल मेरे दोस्त,
क्या है ना कुछ तो हार से सीखा होगा जीत ने,
तभी तो उसने सबको अपनी ओर करके रखा है।
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