बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
[ रामधारी सिंह दिनकर ]-
तेजस्वी सम्मान खोजते नही गोत्र बतलाके ,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके |
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक ,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों मे लीक |-
चैन खोते जा रहा हैं, नींद उजड़ रहीं हैं रातों की।
ना हाल पूछेगा कोई, ना चर्चा होगी हालातों की।।
चंद कुर्सी के कीड़ों ने, कुछ यूँ ज़मीर बेच दिया।
जिन्हें सुनते थे अदब से, अब इज्ज़त नहीं हैं बातों की।।
इसे "दिनकर" की फंकार कहों,या "ग़ालिब" की गज़ल कोई।
तारीफ़े ना मिटेगी कभी, कलम के जज़्बातो की।।-
सदियों की ठण्डी-बुझी
राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज
पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का
घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो
कि जनता आती है ।
- रामधारी सिंह "दिनकर"-
आर्यावर्त कहूँ या भारत
जो भी चाहे कहने दो
अग्नि लगी है हरीतिमा में
इसको तनिक भिगोने दो
धर्म ध्वजा के नीचे आकर
लोग यहाँ रुक जाते हैं
निर्माणॊं के औजारो को
हिंसक प्रयोग में लाते हैं
बात करो तुम सम्वादों की
कठपुतली मत बन जाओ
जन्म लिया पावन धरती पर
पावनता तो दिखलाओ-
आओ दिनकर अंधकार हरो
सारे जग को पुनः प्रकाश से भर दो तुम
पथ आलोकित हो
सब जन-जन के
सोए भाग्य जगाओ तुम
आओ दिनकर-
ऋषि बात नहीं करते, तेजस्वी लोग बात करते हैं
और मूर्ख बहस करते हैं।
~ रामधारी सिंह दिनकर-
⁶⁹
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।-
मैं मंटो हो नहीं सकता,
मैं ग़ालिब बन नहीं सकता।
करूँ कितनी भी कोशिश,
मुझमें दिनकर जल नहीं सकता।
मुझे हरिवंश से उलफ़त है,
लेकिन हूँ अलग उनसे।
फ़क़त कीचड़ में रहने से,
मैं नीरज हो नहीं सकता।
मैं तुलसी को समझता हूँ,
फ़िराक़ ओ फ़ैज़ पढ़ता हूँ।
बहुत कायल हूँ उनका,
पर मैं धनपत हो नहीं सकता।
है मेरे बस में बस इतना,
कि अपने दिल की लिक्खूं मैं।
तो बस ये कर रहा हूँ मैं,
कि अब मैं बन रहा हूँ मैं।-