"लाले परि गये"
राह निहारत, रूप संभारत,
बाट देखि हम कारे परि गये।
जबहु तो फरकु नाई पर्यौ जापै,
चाहत मि जाकी हम ठाड़े मरि गये।
मेरे मोहन अब तौ ख़ैरि कहूं नाई दीखै,
भीर परे तेइ जि सबु जगु जीबौ सीखै।
कमायिकी माया सबरी जई धरा पै धरि गये,
पाप की गठरी जब फूटन लगी, जानि के बुन्नि लाले परि गये।
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What do you call Lord Krishna
playing his flute on a flyover?
Bridge-Mohan
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मोहन किसका है, यह सबको प्रश्न आज सताता है ।
हृदय उसको जितना चाहता, वो उतना दूर जाता है ।-
"यू०पी०" को गुंडों का प्रदेश बताकर लोग करते हैं इसको बदनाम जबकि "यूपी" के "अयोध्या" में स्वयं जन्मे थे, मेरे प्रभु "मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम" तो यही जन्मे थे मेरे "माधव कृष्ण मुरारी" जिनकी "बंसी" की धुन सुनकर "धन्य धन्य" हुए थे "बृजवासी"; तो कालों के काल "महाकाल" "भारत" का सबसे पुराना शहर यही पे है "काशी"
तो "बलिया" के "भृगु क्षेत्र" के हम भी हैं "वासी", हम "शस्त्र" ही नहीं "शास्त्र" भी पढ़ते हैं हम "यूपी" वाले हैं "जनाब" "शौक" से नहीं अपने "स्वाभिमान" के लिए लड़ते हैं ...!!-
जनाब दी जाती होगी तालीम इश्क़ की लखनऊ में,
मिसाल- ए- मोहब्बत आज भी ब्रज की दी जाती है।-
आसमान से बरसती बारिश की बूंदे
मेरे नंदलाला के जन्म का प्रमाण बताती है।
वो बृज की एक दूजे से लिपटी हुई शाखाएं
राधा किशन के प्रेम की कहानियां बताती है।
बरसाने की वो होली
ओर मेरे कान्हा की मधुर बांसुरी की ध्वनि में
राधा के पायल की आवाज़ सबको मंत्रमुग्ध कर जाती है।
गोकुल की हर गलियों में माखन कि फूटी मटकियां
कान्हा के शरारती बचपन की याद दिलाती है।
चलो कान्हा की इन शरारतों में हम भी हिस्से दार बन जाते है
फोड़ते है माखन से भरी मटकियों को
और कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार मनाते है।
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कान्हा,
और कितना इम्तिहान लोगे मेरे इश्क़ का
कहो तो सीना चीर के दिखाऊँ।-
मेरे अश्कों का क्या है,सूख कर उड़ जाँएगे
मगर फिज़ाएं गमगीन हो जाएँगी,
गुन-गुनाकर देखना हमें फ़कत एक बार दुआ में
तुम्हारी दुआएँ नमकीन हो जाएँगी....-
हम रसिक नही रसिकों की पग धुल के उपासी हैं
ह़ा हम तन से, मन से तो हम ब्रजवासी हैं-
कुछ इस तरह तुझे अपनी आदतों में शुमार करना है..
रात-दिन, उठते-बैठते, जागते-सोते..
हमें तुझ से प्यार करना है!🧡
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