लघुकथा - प्रतिबिम्ब
अनजान किस तरह रहते हम अपने ही साए से ।
वो सामने है मेरे और हम उसे गले ना लगा सकें।-
विश्वास का सूरज
द्वीधारा
शुभारंभ ,
गजले इक्कीसवी सदी की ,
पहचान एक प्रयास,
म... read more
तालियाँ बजानी थी बजाई ,रिवाज था दुनिया का
हम से तो रोया भी ना गया और हँसा भी ना गया।
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वे दोनों हर रात छत पर टहलते ,
नियम बना रखा था ढलता सूरज ना देखेंगे
पर चाँदनी में भींगेंगे चंद्रमा उन दोनों का साक्षी रहता ।
कभी छुपकर देखता , कभी संग संग चलता।
दोनों पास पास मगर एक हाथ की दूरी पर रहते
कभी कभी वो तारें गिनती , तो वह मना करता कहता कि गिनने से तारे कम हो जाते हैं।
वो प्रतिप्रश्न नहीं करती मान जाती उसकी कही हर बात ....।
क्यों .... यह तो वह भी नहीं जानती
बस उसके साथ चलना पसंद है
रात पसंद है, उसकी हर बात पसंद है।
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सुनो संगिनी... मेरी सरिता ,
जलनिधि से मेरा एक संदेश कहना
मैं ज्यादा चल नहीं पाऊँगी
बहुत कल कल कर नहीं पाऊँगी
थक जाऊँगी तेरे शहर ना जा पाऊँगी
तुम तक पहुंचने का रास्ता भले ढलान वाला हो
कोई परबत ना हो लेकिन मै थक चुकी हूँ ,
तुम तक मैं तुम्हारी धरोहर ना ला पाऊँगी
बादलों से लेकर जो प्रवास में चली थी
प्रवाह में सतत रही पहाडों से बहियाँ छुड़ाई
वृक्ष लताओं से विदा ली
गाँव शहर से मुँह मोड़ लिया
कुछ पाया कुछ दे दिया
अब तक की जमा पूंजी सब संगिनी को दे रही हूँ उद्गम से संगम तक तुम ही स्मरण रहें। मुझे ही समझ कर तुम मेरी संगिनी से मिलना
उसे गंगा मुझे जमुना समझ लेना।-
सावन- भादों की बूँदें थी और मेरा गीत सूखा रह गया ।
अधरों ने कुछ कहना चाहा, मन अपनी बात कह गया ।-
मैं बेमिसाल हूँ .....
क्योंकि मेरे पास लाल चूडियाँ है
माथे पर दहकती लाल बिंदी है
मांग में दमकता सुहाग है ।
पावों में पायल-बिछुए है ।
कभी मेंहदी है तो कभी
तीज त्योहार में महावर है ।
तुम्हारी दी हुई चुनर ओढती हूँ
तो नजर लग ही जाती है
इस नजर से बचना चाहती हूँ
मैं तुम में छुपना चाहती हूँ।
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एक हसीन दर्द ये सीने में उठता रहा ।
तू याद आता रहा दिल मुस्कुराता रहा ।
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स्त्रियों से बातें करो कि कैसे भोर को बिन आलस्य उठती है।
शायद सूरज से पहले उठती हैं....क्यों
जितना बोलती है उससे ज्यादा सोचती है ,
पर इतना सोचती है.... क्यों ।
सुबह से शाम तक आराम के पल खोजती है ,
फिर से काम करने के लिए ,
लेकिन आराम के पल खोजती है ...क्यों ।
उन्हें चाहिए गुनगुनाए गीत भजन कविता चौपाईयाँ... एक पंक्ति से ज्यादा गुनगुना नहीं पाती ,
पर वे गुनगुनाती भी है तो .. क्यों।
उडना वे स्त्रियाँ सीखती नहीं है ,संस्कृति और सभ्यता के पंख सजाती है ।
जब उडना नहीं है ,तो पंख सजाती है.... क्यों।
मैं उन स्त्रियों को देखती हूँ ... जो आंचल समेट कर चौके में पकाती है ख्वाब ,
कभी नमक कम और मिठास ज्यादा हो जाती है , तो परेशान होती है।
और फिर सोचती हूँ वे स्त्रीयां परेशान होती है .. क्यों ।
फिर सोचती हूँ उनकी आदत है .. ये आदत हैं ... क्यों।-
सुनो ..मुझे तुम्हारा बिछडना याद रहा...
फिर नहीं याद ,मैं क्या हूँ और कैसा हूँ।-
सुनो ,...
मैं तुमसे मिलूँगी नहीं
अगर मिलने पर तुम्हें छू लिया तो
और मेरे छू लेने से तुम कहीं..... शापित ....? ना कभी नहीं,
इस लिए अपनी प्रतीक्षा लिए लौट जाऊँगी ।
तुम पुनर्जन्म मानते हो, ना।
मैं नहीं मानती ।
एक भुलावा है ,एक बहाना है।
मन को बहलाने का ...।
मैं तुम्हें देखते हुए अनंत पथ पर चल पडूँगी ।
और फिर कभी चांदनी बन तुम्हारे आंगन में बिछ जाऊँगी
तो कभी हरसिंगार की तरह आंगन में झर जाऊँगी।
पर तुमसे मिलने नहीं आऊँगी
और आऊँगी तो तुम्हें छू लूँगी।
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