मैं जानती हूँ ये केवल दीप की लौ है जो पूजास्थल में प्रज्वलित है लेकिन क्यों लगता है
वो मुझे देख रहा है ....
जो मेरे विरह के अंधेरों से
यह भी समझती हूँ
हवा इसका काम ही निरंतर चलना है फिर क्यों लगता है
वो मुझे छू रहा है
मुझसे लिपटी तेरी चुनर की छोर से ...
यह भी भलिभांँति जानती हूँ...
कि ना धरती आकाश का मिलन हैं
न चंद्र चकोर का विरह, ना चातक स्वाति की बूंद ,ना सीप और मोती ..
यह सब विज्ञान का रचा खेल है ।
जिसे हम अपने नजरिये से देखने लगे हैं
मिलन मिथक , विरह शाश्वत प्रेम -प्रतीक्षा ,समंदर -नदिया, जीव -प्राण आत्मा- देह मोक्ष और भटकन,
ना जाने कितने विषय में
हम फंसे है
होनी अनहोनी कुछ नहीं है सब समय की शक्ति चलायमान है तुम और मैं
फिर भी तुम तक चली आती हूँ ।
फिर आस निरास के अश्रू से नम पलकें ले लौट जाती हूँ,
अब के जो जा रही हूँ, फिर ना लौट पाऊँगी
....ना लौट पाऊँगी
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