तारीख़ ने अपनी धारा हिन्दुस्तान से क्यूँ मोड़ी
ऐ अशोक तूने अपनी जवां श़मशीर बेसुर्ख़ क्यूँ छोड़ी?-
अर्धविकसित जनपदों की गलियों में स्कूटी पर सैर करने वाला बचपन और यौवन के मध्य झ... read more
वक्त के किसी फेर में फँसा हुआ मुसाफ़िर सा लगता हूँ
मुसलमानों के शहर में किसी काफ़िर सा लगता हूँ-
जवाबों की हुकूमत में,
मैं ख़ुद को सवालों से घिरा पाता हूँ
उरूज़ों के इस समाँ में,
ज़वालों से घिरा पाता हूँ-
बारिश के मौसमों में,
तरबूज़ों से प्यास बुझाता हूँ|
मंदिर के आईनों में,
मैं ख़ुद को ख़ुदा-नुमा सा पाता हूँ|
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हमारी सोहबतों का असर कुछ यूँ हुआ आसमानों पर
कि वे अब रोते नहीं हैं....-
मेरे अश्कों का क्या है,सूख कर उड़ जाँएगे
मगर फिज़ाएं गमगीन हो जाएँगी,
गुन-गुनाकर देखना हमें फ़कत एक बार दुआ में
तुम्हारी दुआएँ नमकीन हो जाएँगी....-
साज़िशों का ख़्वाहिशों से जब वस्ल होता है,
यही खेल तो हर नस्ल दर नस्ल होता है|
'ख़्वाबीदा' से इस जहाँ में उनसे टूट कर टूटना किसी वहम सा मालूम जान पड़ता है,
मगर जब ये होता है,
तो यही मंज़र-ए-अस्ल होता है|-
तेरे लबों के चबूतरे पर जो तिल है न
बस वहीं तो मेरा दिल आया है,
मोहब्बत के "मासिक इम्तेहान" में सौ के बट्टे में निल आया है...-